गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।
सत्य नहीं क्या कविता में,
निर्धनता का व्यापार हुआ?
जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।
आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।
जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।
हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?
इन बातों से श्रमजीवी का
बोलो कब उद्धार हुआ?
अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।
स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से नाराज कहा।
जीवन भर उन धनवानों से पुरस्कार, सम्मान लिए ।
निर्धन से उपकार जताकर, अपने तम्बू तान लिए ।
पर-पीड़ा से नाम कमाया,
ये कैसा उपकार हुआ ?
बाहर घटित हो रहा जो भी, वो कवि के भी भीतर हो।
ना हो कल्पित जाल शब्द के, सिर्फ समय का उत्तर हो।
रूपक, बिम्ब, प्रतीकों में बस उलझाया है कविता को।
जन-जन प्रिय थी लेकिन छोड़ा क्यों छंदों की सरिता को?
इतने क्लिष्ट चयन से केवल
उलझन का विस्तार हुआ।
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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Comment
Vaaaah sir..
Great...
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी एक संदेशात्मक ,सार्थक और वर्तमान विचारों को जीते इस गीत के लिए हार्दिक बधाई। इसमें उल्लेखित कथन सत्यता के काफी निकट हैं। बहरहाल इस सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई सर।
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