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ग़ज़ल- रोज करता खेल शह औ मात का

2122       2122       212

रोज करता खेल शह औ मात का।

रहनुमा पक्का नहीं अब बात का।।

कब पलट कर छेद डाले थालियाँ।

कुछ भरोसा है नहीं इस जात का।।

पत्थरों के शह्र में हम आ गए।

मोल कुछ भी है नहीं जज़्बात का।।

ख्वाहिशें जब रौंदनी ही थी तुम्हे।

क्यूँ दिखाया ख़्वाब महकी रात का।।

इंकलाबी हौसलें क्यों छोड़ दें।

अंत होगा ही कभी ज़ुल्मात का।।

मेंढकों थोड़ा अदब तो सीख लो।

क्या भरोसा बेतुकी बरसात का।।

पीढ़ियों से तख़्त पर काबिज़ तुम्ही।

कौन दोषी आज के हालात का।।

बस बजाना गाल जिनका काम है।

क्या पता उनको पवन औकात का।।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by नाथ सोनांचली on January 17, 2017 at 11:52am
आदरणीय डॉ पवन मिश्र जी सादर अभिवादन, उम्दा गजल बन पड़ी है। दाद के साथ मुबारकबाद कबूल फरमाये। यकीनन मुझे यह गजल बेहद पसंद आयी है।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 17, 2017 at 11:50am

आदरणीय पवन जी, बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 

Comment by Samar kabeer on January 17, 2017 at 10:43am
इसके मौलिक होने में तो कोई शक ही नहीं भाई,ये मुमकिन है इन्हीं रदीफ़ क़ाफिये में कोई और ग़ज़ल पढ़ ली हो,क्या इसमें रवि जी की भी ग़ज़ल है ?
Comment by डॉ पवन मिश्र on January 17, 2017 at 7:58am

आद. समर साहब आपके सुझाव के लिये कोटिशः आभार। मूल में 'अब' को 'है' से संशोधित कर लिया है। ये ग़ज़ल कहने के 10 मिनट बाद ही आप सबकी बेशकीमती राय के लिये पटल पर रखी थी,,,हाँ बह्र, कफ़िया, रदीफ़ हमारे अजीज बन्धु श्री रवि शुक्ल जी की एक ग़ज़ल से लिया था, शायद इसीलिये आपको ऐसा भान हो रहा होगा। वैसे पूरी जिम्मेदारी से आपको आश्वस्त कर दूँ कि यह मौलिक और अप्रकाशित ही है।

Comment by डॉ पवन मिश्र on January 17, 2017 at 7:52am

जनाब मोहम्मद आरिफ साहब आपका बहुत बहुत आभार

Comment by Samar kabeer on January 16, 2017 at 11:42pm
जनाब डॉ पवन मिश्र जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है, दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

मतले के सानी मिसरे में एब-ए-तनाफ़ुर देखिये ,"अब बात" ।
पता नहीं ऐसा क्यूँ लग रहा है मैंने आपकी यह ग़ज़ल कहीं देखी हुई है ।
Comment by Mohammed Arif on January 16, 2017 at 10:25pm
आदरणीय पवन जी, नमस्कार ! आपकी ग़ज़ल पसंद आई । बधाई स्वीकार करें ।

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