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झिलमिल तारों सा सपनो के अम्बर में रहते हो क्यों ?
मलयानिल की मधु धारा सा मानस में बहते हो क्यों?
रेशम सी शर्मीली आँखे गाथा कहती है मन की
निर्ममता के अभिनय क्षण में अंतर्गत चहते हो क्यों?
अंतस में भावों की गंगा यदि पावन है पूजा सी
तो संकल्पों की वर्षा हो फिर पीड़ा सहते हो क्यों?
वृन्दावन की वीथी में तुमने ही झिटकी थी बाहें
फिर उन बाँहों को मंदिर की शाला में गहते हो क्यों?
प्राणों का रसमय बंधन वह तुमने ठुकराकर तोड़ा
विरहा की पावक लपटों में अब बेबश दहते हो क्यों?
आहों के सरगम पर जीवन जाने है कितने बीते
तब फिर तुम तटिनी के तट सा राका में ढहते हो क्यों?
युग की निष्ठुरता का बाना धारण यदि कर ही डाला
तो सबसे उस मधुचर्या की मृदु बातें कहते हो क्यों ?
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
आ० नीलम जी . बहुत शुक्रिया .
आ० जयनित जी , बहुत बहुत आभार .
आ० सतविंदर जी , अनुग्रहीत हुआ . सादर .
आ० मिथिलेश जी - आपका स्नेह मेरा हौसला बढाता है. सादर .
आ० समर कबीर साहिब . आभारी हूँ कि आपने इतना समय दिया . वर्तनी की गलती मेरी लापरवाही है , आहों की सरगम बिलकुल सही मार्गदर्शन है . सादर . .
आदरणीय गोपाल सर .सुंदर सुंदर हिंदी के शब्द रूपी फूलों से बना आपका यह ग़ज़ल रूपी गुलदस्ता दिल को छूने वाला है / इस को कई बार गुनगुनाया / आनंद से सराबोर करती इस शानदार हिंदी ग़ज़ल के लिए ढेर सारी शुभकामनायें सादर
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है. बधाई स्वीकार करें.
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