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//,दोनों अशआर में भाव अलग अलग हैं । कभी कभी कुछ ज़मीनें ऐसी मिल जाती हैं कि वहाँ क़ाफिये तंग हो जाते हैं,ऐसी सूरत में दो दो बार तो क्या तीन बार भी एक ही क़ाफ़िया लिया जा सकता है,'साहिर' के अलावा भी कई उस्ताद शाइरों के यहाँ ऐसी मिसालें मिलती हैं,जो वक़्त आने पर पेश की जा सकती हैं //
यही तो मेरे कहे का इशारा है। संभवतः आपने एकदम से टिप्पणी कर दी, आदरणीय समर साहब।
हमने कहा ही न - //अगर किसी सूरत में किसी शब्द को दो या अधिक दफ़े क़ाफ़िया केरूप में प्रयुक्त करना ही पड़े तो उसके लिए भी कुछ विशेष समझ है. इस ओर निग़ाह बनी रहे. //
सादर
किसी ग़ज़ल में एक ही शब्द को दो दफ़े क़ाफ़िया के रूप में लेने की मनाही नहीं होने के बावज़ूद यह परिपाटी के रूप में मान्य नहीं है. साथ ही, इसे लेकर यह भी कहा जाता है कि यह ग़ज़लकार के पास शब्दों की कमी को भी दर्शाता है. किसी ग़ज़लकार की ताकत उसके लफ़्ज़ ही होते हैं. क्योंकि ग़ज़ल की विधा किसी ग़ज़लकार की भाषा (ज़ुबान) और शब्द (लफ़्ज़) की ताकत का पैमाना है.
अब अगर किसी सूरत में किसी शब्द को दो या अधिक दफ़े क़ाफ़िया केरूप में प्रयुक्त करना ही पड़े तो उसके लिए भी कुछ विशेष समझ है. इस ओर निग़ाह बनी रहे.
प्रस्तुत ग़ज़ल के लिए भाई पंकज जी को हार्दिक बधाइयाँ ..
आ. भाई पंकज जी सूंदर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई .
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