सजनी ने साजन को, खींच लिया पास |
अमराई फूल गई, आया मधुमास ||
धूप खिली निखरी-सी, आयी मुस्कान |
बागों में छेड़ दिया, भँवरों ने तान ||
कलियों के मन जागी, खिलने की आस.........
खिड़की से झाँक रही, जिद्दी है धूप |
रंग बिना लाल हुआ, गोरी का रूप ||
सखियों की सुधियों में, कौंधा परिहास...........
डाली है अल्हड पर , फिरभी है भान |
बौराए महुए के , खींच रही कान ||
महक रहे वन-कानन, महका आवास.........
धरती के आँचल में, सरसों के फूल |
विरहन के नैनों में , चुभते हैं शूल ||
डोल रहा डोल रहा, पल-पल विश्वास..........
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
रचना के लिए आपके प्रयास को सम्मान रक्ताले साहब धरती के फूल विरहन के विश्वास को डिगाने लगे ,क्या तर्क दिया है।
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