For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

 1222 1222 1222 1222

           

कहो तो घोल दें मिसरी ये हम अधिकार रखते हैं  

सिराओं में जहर भर दे वो हम फुफकार रखते हैं

 

बहुत से बेशरम आते हैं छुप –छुप कर हमारे घर  

उन्ही के दम से हम भी हैसियत सरकार रखते हैं

 

दिखाते है हमें वे शान-शौकत से झनक अपनी

तो उनसे कम नहीं घुँघरू की हम झनकार रखते हैं  

 

छिपे होते है आस्तीनों में अक्सर सांप जहरीले

इधर हम बज्म में उनसे बड़े फनकार रखते हैं  

 

गुमां गर है कि हम बिछते हैं चांदी और सोने पर

तो मत रखिये गलत फहमी कड़ी फटकार रखते हैं

 

हमें बदकार कहते हो तो मत करना भरोसा तुम

यकीनन हम हर इक धडकन में दिल बदकार रखते है

 

जिसे स्वीकार कहते हो, समर्पण है नियति का वह

वगरना हम भी दिल में हौसला इनकार रखते हैं   

(मौलिक /अप्रकाशित)

Views: 846

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 12, 2017 at 11:57pm

आदरणीय गोपाल नारायन जी, ग़ज़ल के बरअक्स आदरणीय समर साहब ने खुल कर अपनी बात कही है.  मैं उनसे कई विन्दुओं पर सहमत भी हूँ.

लेकिन एक बात जो समर भाई नहीं कह सके, वो मैं ज़रूर कहूँगा. मतले में ’अधिकार’ शब्द का जिस तरह से प्रयोग हुआ है वो मुझे बेतरीके खटक रहा है. मिसरी घोलने की बात तो निहायत मुलायमी से होनी चाहिए न, आदरणीय. अधिकार हक आदि की बात तो क्रिया के बलात होने का परिचायक है ! 

बाकी, आप ग़ज़ल विधा को ले कर प्रयासरत हैं, यह मंच के साथ-साथ निजी तौर पर आपके लिए भी फ़ख्र की बात होने वाली है. 

Comment by vijay nikore on February 11, 2017 at 11:54pm

गज़ल में ख़्याल बहुत अच्छे हैं। दिल से बधाई, भाई गोपाल नारायन जी।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2017 at 7:35pm

आ० समर कबीर साहिब / वाह --- आपकी विस्तृत  टीप से मन मुग्ध हो गया ,  मनन कर रहा हूँ . मूल प्रति में सुधार करूंगा . सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2017 at 7:33pm

आ० दिनेश जी , बहुत आभार  वस्तुतः  आस्तीन और अस्तीन की मात्राएँ सामान है  किन्तु आ के प्रयोग से ले कुछ जरूर बाधित होती है .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2017 at 7:31pm

आ० मो० आरिफ जी , सादर आभार .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2017 at 7:30pm

आ० मिथिलेश जी , सिर्फ  हौसला अफजाई नहीं आपसे मार्ग दर्शन भी चाहिए .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 9, 2017 at 7:29pm

आ० आशुतोष जी , सादर आभार

Comment by Samar kabeer on February 8, 2017 at 10:11pm
जनाब डॉ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,ग़ज़ल विधा पर आपका अभ्याद संतुष्ट करता है,वाक़ई आप पूरी संजीदगी से इसे परवान चढ़ा रहे हैं,इसके लिये आप बधाई के पात्र हैं ।
इस ग़ज़ल को अगर बह्र की नज़र से देखूँ तो ये एक कामयाब ग़ज़ल है, इसके लिये शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
कुछ अशआर पर आपसे कुछ साझा करना चाहूँगा ।
सबसे पहली बात तो ये कि पूरी ग़ज़ल में ऐब-ए-तनाफ़ुर साथ साथ चल रहा है,कोई बुरी बात नहीं,सिर्फ़ आपकी जानकारी के लिये कह रहा हूँ ।
'कहो तो घोल दें मिसरी ये हम अधिकार रखते हैं
सिराओं में ज़हर भर दे वो हम फुफ्काकार रखते हैं'
इस मतले के दोनों मिसरों में रब्त यानी तालमेल की कमी है,दोनों मिसरों में दो अलग अलग बातें हैं,आप जो कहना चाहते हैं,कह नहीं पाए,दूसरी बात ये कि कई बार इस बारे में बताया जा चूका है कि 'ज़ह्र' सही शब्द है,'ज़हर'नहीं,इस पर बहस नहीं करूंगा,ये आप का निजी मुआमला है कि आप सही शब्द की जगह प्रचलन में आया हुआ शब्द इस्तेमाल करें,आपके मतले का यही भाव इस तरह देखिये :-
"कहो तो घोल दें मिसरी ये हम अधिकार रखते हैं
रहे ये याद कि ज़हरीली भी फुफकार रखते हैं "

'बहुत से बेशरम आते हैं छुप छुप कर हमारे घर'
इस मिसरे में "बेशर्म'सही शब्द है,'बेशरम'नहीं,आप चाहें तो ये मिसरा यूँ कह सकते हैं :-
"कई बेशर्म आ जाते हैं छुप छुप कर हमारे घर"
'दिखाते हैं हमें वे शान-शौकत से झनक अपनी'
इस मिसरे को यूँ लिखें तो मुनासिब होगा :-
"दिखाते हैं हमें वो शान-ओ-शौकत से झनक अपनी"

'छुपे होते हैं आस्तीनों में अक्सर सांप ज़हरीले
इधर हम बज़्म में उनसे बड़े फ़नकार रखते हैं'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,पहली पंक्ति में एक जानकारी है, और दूसरे मिसरे में भी यही बात है,आप क्या कहना चाहते हैं ये स्पष्ट नहीं है,दूसरी बात सानी मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर भी है,'बज़्म में'और ऊला मिसरा बह्र में भी नहीं है ।

'वगरना हम भी दिल में हौसला इंकार रखते हैं'
इस मिसरे में 'हौसला'और 'इंकार'दोनों अलग अलग शब्द हैं,इन दोनों को मिलाकर कुछ कहना है तो इसे यूँ कहेंगे "हौसलए इंकार"यानी इंकार करने का हौसला,इस मिसरे को यूँ कह सकते हैं:-
"वगरना हम भी दिल में जुर्रत-ए-इंकार रखते हैं"
बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by दिनेश कुमार on February 8, 2017 at 7:44pm
आदरणीय गोपाल सर जी। बेहतरीन ग़ज़ल के लिय नमन। वाह वाह।
चौथे शेर के ऊला में थोड़ी बह्र में रुकावट है शायद सर। सादर।
Comment by Mohammed Arif on February 8, 2017 at 5:50pm
आदरणीय गोपाल नारायण जी आदाब, शानदार ग़ज़ल की पेशकश के लिए दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Aazi Tamaam posted a blog post

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्यावैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर…See More
6 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
16 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
22 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
23 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
23 hours ago
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
yesterday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन भाईजी,  प्रस्तुति के लिए हार्दि बधाई । लेकिन मात्रा और शिल्पगत त्रुटियाँ प्रवाह…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी, समय देने के बाद भी एक त्रुटि हो ही गई।  सच तो ये है कि मेरी नजर इस पर पड़ी…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service