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कहो तो घोल दें मिसरी ये हम अधिकार रखते हैं
सिराओं में जहर भर दे वो हम फुफकार रखते हैं
बहुत से बेशरम आते हैं छुप –छुप कर हमारे घर
उन्ही के दम से हम भी हैसियत सरकार रखते हैं
दिखाते है हमें वे शान-शौकत से झनक अपनी
तो उनसे कम नहीं घुँघरू की हम झनकार रखते हैं
छिपे होते है आस्तीनों में अक्सर सांप जहरीले
इधर हम बज्म में उनसे बड़े फनकार रखते हैं
गुमां गर है कि हम बिछते हैं चांदी और सोने पर
तो मत रखिये गलत फहमी कड़ी फटकार रखते हैं
हमें बदकार कहते हो तो मत करना भरोसा तुम
यकीनन हम हर इक धडकन में दिल बदकार रखते है
जिसे स्वीकार कहते हो, समर्पण है नियति का वह
वगरना हम भी दिल में हौसला इनकार रखते हैं
(मौलिक /अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गोपाल नारायन जी, ग़ज़ल के बरअक्स आदरणीय समर साहब ने खुल कर अपनी बात कही है. मैं उनसे कई विन्दुओं पर सहमत भी हूँ.
लेकिन एक बात जो समर भाई नहीं कह सके, वो मैं ज़रूर कहूँगा. मतले में ’अधिकार’ शब्द का जिस तरह से प्रयोग हुआ है वो मुझे बेतरीके खटक रहा है. मिसरी घोलने की बात तो निहायत मुलायमी से होनी चाहिए न, आदरणीय. अधिकार हक आदि की बात तो क्रिया के बलात होने का परिचायक है !
बाकी, आप ग़ज़ल विधा को ले कर प्रयासरत हैं, यह मंच के साथ-साथ निजी तौर पर आपके लिए भी फ़ख्र की बात होने वाली है.
गज़ल में ख़्याल बहुत अच्छे हैं। दिल से बधाई, भाई गोपाल नारायन जी।
आ० समर कबीर साहिब / वाह --- आपकी विस्तृत टीप से मन मुग्ध हो गया , मनन कर रहा हूँ . मूल प्रति में सुधार करूंगा . सादर
आ० दिनेश जी , बहुत आभार वस्तुतः आस्तीन और अस्तीन की मात्राएँ सामान है किन्तु आ के प्रयोग से ले कुछ जरूर बाधित होती है .
आ० मो० आरिफ जी , सादर आभार .
आ० मिथिलेश जी , सिर्फ हौसला अफजाई नहीं आपसे मार्ग दर्शन भी चाहिए .
आ० आशुतोष जी , सादर आभार
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