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कि जब आप उनके कहाने लगे
मुझे सारे वादे बहाने लगे
किया चाक दिल था हमारा अभी
महल ख्वाब का क्यूँ ढहाने लगे
यकीं था मुझ्र भूल जाओगे अब
गमे याद तुम तो तहाने लगे
कहा था अगम एक सागर हूँ मैं
गजब है कि सागर थहाने लगे
चिता ठीक से जल न पाई अभी
मगर आप गंगा नहाने लगे
(मौलिक/अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, वाह वाह, क्या खूब ग़ज़ल कही है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. मतला और आखिरी शेर का जवाब नहीं. आदरणीय सौरभ सर की बात से सहमत हूँ. सादर
आदरणीय गोपाल सर अलहदा अंदाज में लिखी इस शानदार ग़ज़ल के लिए धेर सारी बधाई स्वीकार करें ..सादर प्रणाम के साथ
क्या कमाल किया है, आपने आदरणीय गोपाल नारायण जी ! देसज शब्दों के लालित्य का काफ़िया में भरपूर उपयोग किया है ! वाह वाह !
मैं तो मतले की बेबाकी पर ही मुग्ध हूँ. दिल से ’हरजाई’ के लिए उठती ’उफ़’ और ’आह’ को आपने शब्दों से खूब बाँधा है. बधाई..
लेकिन .. किया चाक दिल था हमारा अभी .. जैसे मिसरे से बचना था. शेर के मिसरे बुनावट में यों गुत्थम्गुत्था हो कर प्रस्तुत नहीं होते. इसी तरह मुझ्र कोई शब्द नहीं होता. यह अवश्य ही मुझे को लेकर हुई टंकण-त्रुटि है.
बहरहाल, इस निराली ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
आ. भाई गोपाल नारायण जी एक अच्छी ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई .
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