दुनिया का सबसे अद्भुत
पति पत्नी के बीच अमर प्रेम का स्मारक
विश्व के तथाकथित आश्चर्यों में से एक
जहा दफ़न है दो आत्माएं
जिसे बनवाया था
मुग़ल शहंशाह शाहजहाँ ने
अपने बेमिसाल पत्नी प्रेम के आडम्बर में
या फिर अपने वैभव की झूठी शान में
जो उसके बेटे ने ही ख़त्म की
उन्हें कैद में डालकर
ताजमहल
जिसे खुद शाहजहाँ ने नहीं बनाया
उसे गढा था
उस युग के बेमिसाल वास्तुकारों ने
स्तब्ध किया था दुनिया को
अपने हुनर से, श्रम से, कला से
और पाया था बदले में
अपने बादशाह से
खुद के कटे हाथ
बतौर पारिश्रमिक या पुरस्कार
नहीं जानता आज इतिहास
वे हुनरमंद कौन थे
याद
किया जाता है तो सिर्फ
शाहजहाँ को
इसलिए नहीं कि उसने कटवाए थे
अपने ही स्मारक निर्माता के
हुनरमंद हाथ
बल्कि इसलिए कि
वह एक बादशाह था अजीमुश्शान
उसने बनवाया था
एक हंसी ताजमहल
जहां सन्नाटे में रोती है दो कब्रें
किसका भला हुआ ऐसी वास्तु रचना से
यह एक प्रश्न है
पर वह
नहीं था बादशाह
नहीं बनवा सकता था
वह कोई हसीं ताजमहल
किन्तु उसे भी मोहब्बत थी
बेपनाह अपनी पत्नी से
प्यारी फगुनिया से
नहीं
बचा सका था जिसकी वह जान
दूर था हॉस्पिटल
बहुत उसके गाँव से
हालांकि वास्तव में बहुत दूर नहीं था
पर गाँव का पहाड़
रोकता था रास्ता हॉस्पिटल जाने का
घूमकर बहुत बहुत घूमकर
पड़ता था जाना
दूर---- बहुत दूर --- बहुत बहुत दूर
नहीं बचा पाया वह
पत्नी को मरने से
पर अब न मरे कोई फिर उस ढंग से
चिकित्सा के अभाव में
उस अद्रि व्यवधान से
या फिर मृत पत्नी की आत्मा की
शान्ति हेतु
उसने संकल्प किया
साँचा और दृढ
उस दशरथ मांझी ने
और तोड़ डाला
दुर्गम पहाड़ को स्वयं अकेले
सर्वथा अकेले
खडा था हिमालय सा अडिग जो
अचल व्यवधान सा
गहलौर गाँव में
बीस वर्ष तपकर
अपनी सनक में धुर पागलपन में
उसने बनाया एक सहज रास्ता
वजीरगंज सेक्टर तक
अपने उस गाँव से
और कर दी बौनी
दूरी पचपन किलोमीटर की
पंद्रह किलोमीटर में
पहले उड़ाते थे उसका मजाक जो
ताने कसे थे जिन्होंने उसके प्रयास पर
किया था कभी
उसका विद्रूप उपहास
नत हैं सिर उनके आज शर्म से
ग्लानि से और पाश्चात्ताप से
क्योंकि नहीं पहचान पाए वह
अपने ही बीच पले-बढे
उस देवदूत को
जिसने किया उनका जीवन
सरल और सपाट
कदाचित आसान
तोड़कर
भारतीय वन्य जीवन सुरक्षा
के नियमों को
सिर्फ इसलिए कि
उसने किया था एक मूक वादा
अपने पत्नी की दहकती चिता पर
जिसे करता था वह
बेपनाह प्यार
शाहजहाँ
नहीं था वह
शहंशाह भी नहीं
मालिके हिन्द नहीं
ताजदार भी नहीं
अदना इंसान था मामूली बेगैरत
जिसने किये जाया
अपने जीवन के अनमोल
बीस वर्ष
अपनी उस खब्त में
जिससे बना वह रास्ता
आमजन के लिए
जाहिर है
उसने नहीं बनाया ताजमहल
नहीं रचा विश्व का आश्चर्य कोई
पर वह पथ जो बना गया
पहाड़ की छाती भेदकर
ऐसा स्मारक है
जिस पर शर्मिंदा होंगे
जाने कितने ताजमहल
जिस पर कुर्बान होंगी
हजारों हजार सल्तनतें
अश-अश करेंगे लख-लख शाहजहाँ
दुआ करेंगे तमाम ताजेदार हिन्द
क्योंकि इस स्मारक ने
नहीं काटे निर्दोष हाथ
और नहीं बना कभी श्मशान सा
यह तो बना है खून से, पसीने से
अनवरत श्रम से
एक पागल प्रेमी के
जिससे मिली आम लोगों को राहत
उस मंजिल के लिए
जो कभी दूर और दुर्गम थी
नीव में उस पथ के
दफ़न है खामोश
अमर प्रेम
दशरथ मांझी का
अपनी प्यारी पत्नी के लिए
जो थी उसकी नूरजहाँ
जिसे करता था वह
बेइंतेहा प्यार
उसकी अपनी फगुनिया
(मौलिक् / अप्रकाशित )
Comment
वाह, क्या ही सुन्दर रचना है ... आनन्द आ गया। साहिर जी की याद भी आ गई।
आपको बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , क्या बात है .. आपकी इस रचना ने अजीम शायर स्व. साहिर की याद दिला दी ...
ताज तेरे लिये इक मजहर ए उल्फत ही सही
तुझको इस वादी ए रंगी से अक़ीदत ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे ... बड़ी नज़्म है .... आपकी कविता के ही भाव में ... आपको हार्दिक बधाइयाँ बेहतरीन कविता के लिये ।
वाह्ह्हह्ह वाह्ह्हह्ह बहुत ही सुंदर प्रस्तुति सोचने को मजबूर करती किसका प्रेम बड़ा था माझी एक साधारण आदमी था मगर उसका प्यार और उसका कर्म एक बादशाह शाह्जहाँ से बड़ा था ढेरों बधाई आद० डॉ.गोपाल भाई जी इस शानदार प्रस्तुति पर .पोस्ट पर देर से आने का खेद है |
. आदरणीय समर कबीर जी , आपकी टीप मेरे लिए सदैव बड़ा मायने रखती है . मैं इस प्रस्तुति को लेकर आशंकित था पर अब आश्वस्त हुआ हूँ . . सादर
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