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क़ैद को क्यों नजात कहता है
क्या कज़ा को हयात कहता है ?
तीन को अब जो सात कहता है
बस वही ठीक बात कहता है
क्यूँ न तस्लीम उसको कर लूँ मैं
वो मिरे दिल की बात कहता है
कैसे कह दूँ कि वास्ता ही नहीं
रोज़ वो शुभ प्रभात कहता है
ऐतराज उसको है शहर पे बहुत
हाथ अक्सर जो हात कहता है
उसकी बीनाई भी है शक से परे
जो सदा दिन को रात कहता है
जीत जब भी मिली, वो क़ाबिल था
मात को फर्जी मात कहता है
ज़ेह’न बदला नहीं मिरा अब तक
दर्द, अब भी निशात कहता है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज सर, आपकी ग़ज़ल में एक अलग ही रंग होता है. इस खूबसूरत ग़ज़ल के सभी शेर बढ़िया लगे. हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.
लाजवाब रचना
आदरनीय बृजेश भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आ, बसंत भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
जीत जब भी मिली, वो काबिल था,
मात को फर्जी मात कहता है, वाह बहुत शानदार
आदरनीय नीलेश भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आभार । ...आ. मै .. मेरे ही लिखता था ... किन्ही सज्जन की देखा सीखी मै भी शुरू कर दिया ... अब बन्द ...।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ।
आ. गिरिराज जी,
अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई ...
मेरे को मिरे न लिखा करें ...ये किसी भी भाषा का शब्द नहीं है ..... शब्द गिरा के पढ़ा जाना एक बातइ लेकिन लिखते समय गिराना मुझे ठीक नहीं लगता ..
सादर
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