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ग़ज़ल: सूखे-सूखे जंगल अब

बह्र-22/22/22
सूखे-सूखे जंगल अब,
रूठे-रूठे बादल अब ।

.
वादे, नारे सब झूठे,
बदले-बदले हैं दल अब ।

.

देखो किसकी साज़िश है,
रिश्ते-नाते घायल अब ।

.

बोतल में ऊँचे दामों,
बिकता है गंगा जल अब ।

.

ग़रीब के घर भी यारों,
ख़ुशियों वाला हो पल अब ।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Views: 721

Comment

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Comment by Mohammed Arif on May 8, 2017 at 1:16pm
ग़ज़ल सराहना और हौसला आफज़ाई का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय नीलेश जी ।
Comment by Mohammed Arif on May 8, 2017 at 1:16pm
ग़ज़ल सराहना और हौसला आफज़ाई का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय नीलेश जी ।
Comment by Mohammed Arif on May 8, 2017 at 1:16pm
ग़ज़ल सराहना और हौसला आफज़ाई का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय नीलेश जी ।
Comment by Mohammed Arif on May 8, 2017 at 1:14pm
बहुत-बहुत आभार और इस्लाह के लिए भी शुक्रिया आदरणीय अनुराग वशिष्ठ जी ।
Comment by Mohammed Arif on May 8, 2017 at 1:11pm
ग़ज़ल सराहना के लिए बहुत-बहुत आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 8, 2017 at 11:59am

हार्दिक बधाई स्वीकारें ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 8, 2017 at 10:01am

वाह वा. आ.  मोहम्मद आरिफ़ साहब... 
अच्छी ग़ज़ल पेश की आपने ...
ग़ज़ल में स्वागत है आपका ..
सादर 

Comment by Ravi Shukla on May 8, 2017 at 9:58am

आदरणीय मोहम्‍मद आरिफ जी छोटी बहर में अच्‍छे अशआर कहे आपने दिली बधाई इस गजल के लिये मतले में दोनो मिसरों का बदल कर देखे

रूठे रूठे बादल अब

सूखे सूखे जंगल अब  

 इस पर एक त्‍वरित सुझाव देने का विनम्र प्रयास है  

जब से रूठे बादल सब

सूख गये हैं जंगल सब  गंगाजल वाले मिसरे को छोड दें तो सारे शेर इस रदीफ से भी निकल कर आ सकते है ।सादर

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