(बह्र--22/22/22/2)
उसको ये समझाना है ,
इक दिन सबको जाना है ।
.
हँस के रोकर कैसे भी ,
जीवन क़र्ज़ चुकाना है ।
.
देखो, भटका फिरता वो ,
वापस घर तो आना है ।
.
अच्छी सच्ची राहें हैं
सबको ये बतलाना है ।
.
उसके संगी-साथी को ,
मिलकर हाथ बढ़ाना है ।
.
आशा की किरणों वाला ,
फिर से दीप जलाना है ।
.
मौलिक एवं आप्रकाशित ।
Comment
सहज सरल शानदार अभिव्यक्ति
आ० मोहम्मद आरिफ जी, छोटी बह्र में बहुत बढ़िया ग़ज़ल प्रस्तुत की है आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।
//हँस के रोकर कैसे भी// क्या इस मिसरे को "हँस के रो के" या "हँस कर रो कर" किया जा सकता है? देख लीजिएगा। सादर।
आदरणीय मोहम्म्द आरिफ साहब गजल पर आपको प्रयास करता देख का खुशी हुई बहुत बहुत मुबारक बाद इसके लिये
बहुत खूब आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब.... ग़ज़ल के लिये बधाई
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online