मापनी २२ २२ २२ २२
झील सी गहरी नीली आँखें
हैं कितनी सकुचीली आँखें
खो देता हूँ सारी सुध बुध
उसकी देख नशीली आँखें
यादों के सावन में भीगीं
हो गईं कितनी गीली आँखें
मोम बना दें पत्थर को भी
छोटी सीली सीली आँखें
राह तुम्हारी तकते तकते
हो गईं हैं पथरीली आँखें
बढती बेलें देख के’ अपनी
होतीं हैं गर्वीली आँखें
प्रेम अगन सुलगाने को तो
हैं माचिस की तीली आँखें
गम तो है वैसे का वैसा
रोतीं खाली-पीली आँखें
सुन लेतीं सब कह देतीं सब
कहने को शर्मीली आँखें
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
aआपका ह्रदय से आभार आदरणीय रवि शुक्ला जी , सही कहा आपने. मैं आपकी बात से सहमत हूँ.
आदरणीय बसंत जी शब्द के प्रयोग को लेकर आपकी गजल के हवाले से काफी सार्थक बहस हो गई पढने को काफी कुछ मिला । शब्द प्रयोग में आने के बाद शब्दकोष में जगह बनाता है कृष्ण से किशन और किशन से किसन आज साहित्य में प्रयोग हो रहा है और स्वीकार है । साजिशन की स्वीकार्यता हो रही है तो सकुचाई हुई अर्थात सकुचीली आखें में कोई आपत्ति का तर्क हमें नही समझ आता ।पाठक इसे स्वीकार करेंगे तो ये शब्द कोष में शामिल हो जाएगा । शब्द कोष में नहीं है तो इस्ते माल नहीं करना , इस प्रकार तो नये शब्द बनने ही बंद हो जाएंगे, हमने पहले ही टिप्पणी में लिखा था सकुचीली आखें नया प्रयोग है । आप अपनी रचना में क्या शब्द रखते है ये आपकी लेखकीय स्वतंत्रता है और हम इसके पक्षधर है । महसूस करना को महससूना प्रयोग किया जा रहा है खास कर अतुकांत कवियों द्वारा हमें व्यकितगत रूप से ये प्रयोग नहीं पंसद आता हम नहीं लिखते कल को ये शब्द कोष का हिस्सा बन जाए तो भी हम इसका प्रयोग नहीं करेंगे क्योंकि लेखकीय स्वतंत्रता पहले है अापके भाव किन शब्दों से अभिव्यक्त होते है ये जरूरी है । सादर
जनाब समर कबीर साहब, आदाब,
'चर्चा वो सार्थक होती है जो सही बिन्दू पर की जाये,एक ऐसे शब्द पर की गई चर्चा जिसका उर्दू हिन्दी शब्दकोष में दूर दूर तक पता नहीं,समय की बर्बादी है,'
शब्द पहले सामान्य व्यवहार में आते है वो शब्दकोश में बाद में दाख़िल होते हैं. 'साजिशन' एक ऐसा ही शब्द है. हमारे यहाँ शब्दकोशों के नए संस्करण ही दशकों में निकलते हैं तो नए शब्दों को शामिल करने की रफ्तार क्या होगी ये सोचा जा सकता है. आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज के शब्दकोश हर साल सैकड़ों नए शब्दों को दाख़िल करते रहते हैं. अगर ऐसी कोई व्यवस्था हमारे यहाँ होती तो साजिशन कब का शब्दकोशों का हिस्सा होता.
'आप यहाँ ये कह सकते हैं कि साहित्य की मिसाल पेश करने के लिये आपसे मैंने ही कहा था,लेकिन आप इस बात को नहीं समझ पाए कि 'साजिशन'शब्द कविता में नहीं ग़ज़ल में इस्तेमाल हुआ है,और आप मिसालें कविता की दे रहे हैं,ये कोई बात नहीं हुई,क्योंकि कविता और वो भी अतुकान्त,और ग़ज़ल दोनों अलग अलग मिज़ाज रखती हैं,तो क़ायदे से आपको ग़ज़ल से ही इसकी मिसाल पेश करना थी'
उर्दू या हिंदी की अतुकांत कविता का कोई ऐसा शब्द नहीं है जो ग़ज़ल में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. दोनों के मिजाज का सवाल एक अलग सवाल है.
मेरी कोशिश सार्थक चर्चा की ही है फिर भी आपका या किसी और का समय बर्बाद हुआ हो तो माफ़ी चाहता हूँ.
सादर
आदरणीय बसंत जी,
ग़ज़ल की भाषा का आधार शब्दकोशीय शब्द से ज्यादा लोक व्यवहार की भाषा होती है. शब्दकोशों में हज़ारों ऐसे शब्द होते है जो व्याकरणिक संभावनाओं के तहत रख लिए जाते है. जबकि व्यव्हार में नहीं आते. व्याकरणिक संभावनाओं का आधार हरदम उपयुक्त होता भी नहीं. चमक+ईला =चमकीला और उसका स्त्रीलिंग चमकीली बिलकुल ठीक है लेकिन इसी के अनुकरण पर महक+ईला =महकीला और उसका स्त्रीलिंग महकीली का व्यव्हार बिलकुल सही नहीं होगा. नयेपन का मैं हमेशा समर्थक हूँ लेकिन उसे ग़ज़ल की प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए.
सादर
आदरणीया rajesh kumari जी एवं आदरणीय Samar kabeer जी, आपके उत्तम सुझाव का दिल से शुक्रिया, आभार एवं सादर नमन
मतले के उला में शर्मीली कर लें तथा मक्ते/अंतिम शेर में --- पूछे बिन सब कुछ कह देती ,आखिरकार पनीली आँखें --यदि अच्छा लगे तो
आदरणीय Mohammed Arif जी, आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी, आदरणीया rajesh kumari जी , आदरणीय Samar kabeer जी , मंच ने मेरी रचना को इतना समय दिया और ग़ज़ल में शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में सार्थक और सारगर्भित चर्चा हुई, आप सभी का दिल से शुक्रगुजार हूँ, मैं कोशिश करता हूँ कि सकुचीली के स्थान पर कोई और शब्द रखूँ.
यह शब्द मुझे नेट पर उपलब्ध "शब्दकोष रफ़्तार" जिसमें उर्दू हिंदी विधा के अधिकतर शब्द मिल जाते हैं, में, यह भी उपलब्ध है. यह बात सही है कि इसका उपयोग सामान्यतया नहीं होता. सादर नमन आप सभी को
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