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ग़ज़ल

सर पे कैसी मुसीबत बड़ी आ गई।
देखिये फैसले की घड़ी आ गई।

साँस लेना मुनासिब भी लगता नही
ये हवा किस कदर नकचढ़ी आ गई।

दिल के साँपो को हम मार पाते नहीं,
साँप आया जो घर इक छड़ी आ गई।

ईंट पत्थर लगाकर मकां जब बना
लो हिफाजत को उसके कड़ी आ गई।

अब चमन में कहीं फूल खिलते नहीं,
पतझरों की अजब सी लड़ी आ गई।

रौशनी के लिए 'मन' मचलने लगा,
उसको बहलाने को फुलझड़ी आ गई।

मंजूषा मन

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by मंजूषा 'मन' on August 19, 2017 at 6:27pm
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण जी
Comment by मंजूषा 'मन' on August 19, 2017 at 6:25pm
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय नरेन्द्र जी
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2017 at 11:23am
आदरणीया मंजूषा जी, अच्‍छी गजल कही आपने मुबारक बाद कुबूल करें ।
Comment by narendrasinh chauhan on August 16, 2017 at 7:09pm

सुन्दर रचना 

Comment by मंजूषा 'मन' on August 16, 2017 at 4:32pm
हौसला अफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया जनाब मुहम्मद आरिफ साहब
Comment by मंजूषा 'मन' on August 16, 2017 at 4:31pm
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब सुरेन्द्र साहब आपने हौसला बढ़ाया
Comment by मंजूषा 'मन' on August 16, 2017 at 4:29pm
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब कबीर साहब
Comment by मंजूषा 'मन' on August 16, 2017 at 4:28pm
बहुत बहुत जनाब कबीर साहब... आपके द्वारा बताया काफिया दोष दूर करने का प्रयास करेंगे... आपकी इस्लाह से ग़ज़ल मुकम्मल हो सकेगी
Comment by मंजूषा 'मन' on August 16, 2017 at 4:25pm
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब आशुतोष साहब
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 16, 2017 at 12:50pm
सुन्दर ग़ज़ल हुई आदरणीया..बधाई

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