प्रकाश को काटते नभोचुम्बी पहाड़
अब हुआ अब हुआ अँधेरा-आसमान ...
अनउगा दिन हो यहाँ, या हो अनहुई रात
किसी भी समय स्नेह की आत्मा की दरगाह
दीवारों के सुराख़ों में से बुलाती है मुझको
और मैं आदतन चला आता हूँ तत्पर यहाँ
पर आते ही आमने-सामने सुनता हूँ आवाज़ें
इस नए निज-सर्जित अकल्पनीय एकान्त में
अनबूझी नई वास्तविकताओं के फ़लसफ़ों में
और ऐसे में अपना ही सामना नहीं कर पाता
झट किसी दु:स्वप्न से जागी, भागती, हाँफती
लौट आती है भीषण वेदना पूछने दु:खांत प्रश्न
प्रकाश को काटते गूंगे अवाक खड़े पहाड़ से
भीतर फिर से फैल रहे तनाव के आसमान से
प्रलय...
चुप है नभोचुम्बी पहाड़
चुप है गंभीर अँधेरा-आसमान
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//आपकी कल्पना की उड़ान नये जौहर लेकर कविता के रूप में आ जाती है,और मुझे मुग्ध कर देती है//
आपके कहे यह शब्द मेरे लिए विशेष मान्य रखते हैं और प्रेरणा देते हैं, हार्दिक आभार आदरणीय भाई समर जी।
टंकण-त्रुटि बताने के लिए भी आभार। संशोधन कर रहा हूँ।
//हमेशा की तरह एक गहन अभिव्यक्ति समेटे अप्रतिम प्रस्तुति//
आपसे मिली इस उदार सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी
//उम्दा सृजन, भाव पक्ष बेहद मजबूत//
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुरेन्द्र जी
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय लक्ष्मण जी ।
//क्या सुंदर अभिव्यक्ति है ।बहुत ही सुंदर चित्रण //
आपसे मिली सराहना से मुझको और प्रेरणा मिली है। हार्दिक आभार, आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ भाई।
//रचना शैली का एक और उत्तम उदाहरण है//
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मोहित जी ।
आदरनीय बड़े भाई , हमेशा की तरह खूब सूरत भाव पूर्ण कविता की रचना की है आपने । हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।
आदरणीय विजय निकोर साहिब , आदाब ... हमेशा की तरह एक गहन अभिव्यक्ति समेटे अप्रतिम प्रस्तुति को आपने अपने पाठकों को नवाज़ा है। इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें सर।
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