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आज तू जो मुझे बदला सा नज़र आता है..............संतोष.

अरकान हैं 'फ़ाइलातून फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

आज तू जो मुझे बदला सा नज़र आता है
दोस्ती में तिरी धोका सा नज़र आता है

तूने छोड़ा था मुझे यार किसी की शह पर
इसलिये आज तू तन्हा सा नज़र आता है

ये तो शतरंज की बाजी है बिछाई उसकी
तू तो इस खेल में मुहरा सा नज़र आता है

है शिकन साफ़,शिकस्तों की तिरे माथे पर
तू हमें कुछ डरा सहमा सा नज़र आता है
#संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by santosh khirwadkar on August 31, 2017 at 6:43pm

आदरणीय अजय जी , धन्यवाद !!

Comment by santosh khirwadkar on August 29, 2017 at 4:50pm
जी आदरणीय गिरिराज जी , इसमें कोई शक़ नहीं कि इस मंच पर उपलब्ध सामग्री ही हम जैसे नवीन प्रशिक्षुओं के लिये काफ़ी है! आभार!!
Comment by ajay sharma on August 28, 2017 at 11:40pm

बहुत खूब 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 28, 2017 at 9:52pm

आ. संतोष भाई , गज़ल के प्र्ति आपकी रुझान का स्वागत है .. आ. समर भाई जी की सलाह पर अमल कीजिये । किताब खरीदना एक दम ज़्रूरी नही है , पहले आप मंच मे उअपलब्ध  '' गज़ल की बातें ''  और ग़ज़ल की कक्षा मे दिय पाठों का अध्ययन कीजिये , वही बहुत काफी है । फिर किताब की सोचियेगा ।

Comment by santosh khirwadkar on August 28, 2017 at 10:59am
धन्यवाद आदरणीय लक्ष्मण जी , आप के इस उत्साहवर्धन के लिये हृदय से आभार!!
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 28, 2017 at 9:14am
हार्दिक बधाई । प्रयास जारी रखिए प्रबुद्ध जनों का मार्गदर्शन मिलता रहेगा । आप बेहतरीन लिखेंगे यही आशा करते हैं...शेष शुभ शुभ...
Comment by Samar kabeer on August 27, 2017 at 9:49pm
ख़ुश रहो अज़ीज़म,मेरे वश में जो है मैं उसमें कभी कमी नहीं करता,आपकी महब्बतें सर आँखों पर,इसे ऐडिट कर दीजियेगा ।
Comment by santosh khirwadkar on August 27, 2017 at 7:34pm
अह्ह्ह्ह्ह्ह्ह ज़िन्दाबाद.....चरण स्पर्श आदरणीय श्री समर साहब , आज जैसे शब्दों में प्राण आ गये...आप का ये आशीर्वाद स्वरूप मार्गदर्शन जीवन भर नहीं भूलूँगा..मैं निश्चित ही इस अभ्यास हेतु पुस्तकें क्रय करूँगा! इस मंच से आज ये स्पष्ट कर दूँ कि जब कभी मुझे पढ़ने का मौका मिलेगा ,आप के इस मार्गदर्शन स्वरूप आशीर्वाद को साझा किये नहीं पढ़ूँगा!
पुनः हृदय से आभार!!!!
Comment by Samar kabeer on August 27, 2017 at 6:43pm
जनाब संतोष जी आदाब,

आज तू जो मुझे बदला सा नज़र आता है
दोस्ती में तिरी धोका सा नज़र आ5या है

तूने छोड़ा था मुझे यार किसी की शह पर
इसलिये आज तू तन्हा सा नज़र आता है

ये तो शतरंज की बाजी है बिछाई उसकी
तू तो इस खेल में मुहरा सा नज़र आता है

है शिकन साफ़,शिकस्तों की तिरे माथे पर
तू हमें कुछ डरा सहमा सा नज़र आता है
-------
ये मैंने आपकी ग़ज़ल की इस्लाह कर दी है,इसमें क़ाफ़िया अलिफ़ का है और रदीफ़'नज़र आता है'और इसके अरकान हैं 'फ़ाइलातून फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन ।
लेकिन भाई अध्यन के बग़ैर काम नहीं चलेगा,ओबीओ पर आलेख हैं,कुछ किताबें ख़रीदना होंगी ।
Comment by santosh khirwadkar on August 27, 2017 at 12:45pm
आप के विचार का स्वागत ब्रजेश जी , किंतु न सफलता की चाह हैं न असफलता से डर या संकोच ......

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