बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन: 2122 2122 2122 2122
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है जिगर में कुछ पहाड़ों सा, पिघलना चाहता है
मौसम-ए-दिल हो चुका कुहना बदलना चाहता है
छोड़कर सब ही गये ख़ाली है दिल का आशियाना
अश्क़ बन कर तू भी आँखों से निकलना चाहता है
चोट खाकर दर्द सह कर बेदर-ओ-दीवार होकर
दिल तेरी नज़र-ए-तग़ाफ़ुल में ही जलना चाहता है
ज़ख्म पिछले मर्तबा के भूल बैठा क्या करें हम
तिफ़्ल है ये दिल वफ़ा में फिर मचलना चाहता है
क्या मुदावा हो किसी का खू तेरी जिसको लगी हो
जो तेरी झूठी क़सम पर भी बहलना चाहता है
होश आमादा है उड़ने को मेरे दीवानगी में
हाशिया तेरी हया का भी फिसलना चाहता है
रोज़मर्रा की कदो काविश में जलकर थक गये हैं
माह ज़िम्मेदारियों का अब तो ढलना चाहता है
है ये कम क्या आदमी अपनी बसारत को ज़िया दे
क्यों भला वो सूरते दुनिया बदलना चाहता है
~राज़ नवादवी
कुहना- पुराना; नज़रेतग़ाफ़ुल- उपेक्षा की दृष्टि; तुफ्ल- बच्चा; मुदावा- उपचार; खू- आदत; पैरहन- कपड़ा; कदोकाविश- भागदौड़; माह- चाँद; बसारत- दृष्टि, नज़र
‘मौलिक एवं अप्रकाशित’
Comment
आदरणीय राज नवादवी जी ..बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुयी है आपने उर्दू शब्दों का अर्थ भी साथ में देकर ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाने का पूरा मौका दिया है ..काबिले तारीफ़ इस ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करें सादर
जनाब समर कबीर साहब, ऐब-ए-तनाफ़ुर वाले शेर को क्या इस तरह तब्दील करना सही होगा?
आदमी अपनी बसारत को ज़िया दे क्या ये कम है
क्यों भला वो सूरतेदुनिया बदलना चाहता है
कृपया मशविरा दें! सादर.
जनाब संतोष खिर्वाड़कर जी, ग़ज़ल की सराहना का ह्रदय से आभार. सादर.
आदाब अर्ज़ है जनाब समर कबीर साहब, आपकी दाद-ओ-इस्लाह का बहुत बहुत शुक्रिया. तिफ़्ल को तुफ्ल लिखने की भूल हुई है. पैरहन वाले शेर का क्या करूँ? ऐब-ए-तनाफुर है तो फिर 'बदल ले' कभी साथ नहीं आएँगे, समझ गया. खामखाँ के बदले 'बेवजह' लिखना मुनासिब होगा? गुजारिश है कि इस्लाह दें, ग़ज़ल को एडिट करता हूँ तो पुराने सभी कमेंट्स ग़ायब हो जाते हैं, कृपया मार्गदर्शन करें. सादर.
आदरणीय सुशील सरना जी, आपकी प्रशंसा का ह्रदय से आभार. सादर
होश आमादा है उड़ने को मेरे दीवानगी में
पैरहन तेरी हया का भी फिसलना चाहता है
वाह बहुत ही खूबसूरत अहसास पिरोये हैं आदरणीय आपने अपनी इस बेहतरीन ग़ज़ल में। दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं।
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