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निहारता तो हूँ तुम्हें, चोरी से चुपके से- गजल, पंकज मिश्र

1212 1212 222 222

निहारता तो हूँ तुम्हें, चोरी से चुपके से
विचारता तो हूँ तुम्हें, झपकी ले चुपके से

कभी तुम्हारे नाम से ज्यादा कुछ लिक्खा कब?
सँवारता तो हूँ तुम्हें, कॉपी पे चुपके से

मिलन को जब भी तुम मेरे सपनों में आई हो
निखारता तो हूँ तुम्हें, लाली दे चुपके से

बजे है जल तरंग सी छन छन तेरी पायल जब
उतारता तो हूँ तुम्हें, वंशी पे चुपके से

उदासियों से जब भी घिर जाता है मेरा मन
पुकारता तो हूँ तुम्हें, आ भी रे चुपके से

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 19, 2017 at 10:29am
आदरणीय अलका जी सादर आभार
Comment by अलका 'कृष्णांशी' on September 18, 2017 at 9:49pm

आद0  Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" जी, सुंदर ग़ज़ल  के लिए बधाई ।सादर

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 18, 2017 at 7:27pm
आदरणीय भाई ब्रज जी बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 18, 2017 at 7:27pm
आदरणीय गिरिराज सर बहुत बहुत आभार, आप लोगों के स्नेह का परिणाम है सब
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 16, 2017 at 7:26pm
अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2017 at 5:56pm

आदरणीय पंकज भाई , अच्छी गज़ल कही है , बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2017 at 4:13pm
आदरणीय पंकज जी बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2017 at 4:13pm
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2017 at 4:12pm
आदरणीय कल्पना मैम सादर अभिवादन और आभार
Comment by पंकजोम " प्रेम " on September 15, 2017 at 2:50pm
उम्दा ग़ज़ल भाई जी ख़ूब..... मुबारकबाद क़बूल करें

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