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ग़ज़ल - मैं उसकी ताब से खो कर हवास बैठा था ( गिरिराज भंडारी )

1212   1122   1212   22  
नहीं ये ठीक, मैं तन्हा उदास बैठा था

मैं उसकी ताब से खो कर हवास बैठा था

                                                                                    

नज़र उठा के तेरी सिम्त कैसे करता मैं

नज़र से चल के कोई दिल के पास बैठा था

 

कहीं नदी की रवानी थमी थी पत्थर से

कहीं लिये कोई सदियों की प्यास बैठा था

 

है मोजिज़ा कि ख़ुदा का करम बहा मुझ पर   

वो तर बतर हुआ जो मेरे पास बैठा था

 

जलीं वहीं पे दुकानें बहुत सी कपड़ों की

जहाँ सड़क पे कोई बे लिबास बैठा था

 

उधर से गोलियाँ चलतीं, इधर से पत्थर थे

खबर ये देख के, मैं बद हवास बैठा था

 

डरी हुयी थी हक़ीक़त, वो बोलती कैसे

टिकाये अस्लहे सर पर, क़यास बैठा था     

************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2017 at 1:35pm

आदरणीय आरिफ भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आभार आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2017 at 1:34pm

आ. बृजेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 17, 2017 at 1:34pm

आ. नीरज भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से अभार । व्यक्तिगत तौर पर मुझे उस शेर मे कोई कमी नही महसूस हो रही है, , फिर भी आपकी सलाह पर ग़ौर करूँगा , क्योंकि आपने भी मेरा कुछ भला सोच के ही सलाह दी होगी , अगर कुछ सूझा तो परिवर्तन ज़रूर करूँगा , आभार आपका ।

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on September 17, 2017 at 11:51am
आ0 गिरिराज जी सुंदर ग़ज़ल। शेर दर शेर दाद हाजिर है।
Comment by नाथ सोनांचली on September 17, 2017 at 4:16am
आद0 गिरिराज भाई जी सादर अभिवादन, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही आपने, दाद के साथ बधाई क़बूलें। सादर।
Comment by Mohammed Arif on September 16, 2017 at 10:22pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आदाब, बहुत अच्छे अश'आर । हार्दिक बधाई स्वीकार अरें ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 16, 2017 at 8:08pm
क्या कहने आदरणीय...बहुत ही खूब ग़ज़ल कही सादर
Comment by Niraj Kumar on September 16, 2017 at 6:09pm

आदरणीय गिरिराज जी,

अच्छी ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद. 

है मोजिज़ा कि ख़ुदा का करम बहा मुझ पर   

वो तर बतर हुआ जो मेरे पास बैठा था

इस शेर के सानी में सन्दर्भ बरसने का है इसलिए मेरे ख्याल से ऊला को 'करम बरसने' के नजरिये से बाँधा जाना बेहतर होगा.

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2017 at 5:52pm

आ. शिज्जु भाई , गज़ल पर आपकी गौरवमयी उपस्थिति के लिये आपका ह्र्दय से आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2017 at 5:51pm

आ. नीलेश भाई , शुक्रिया आपका ।

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