1212 1122 1212 22
नहीं ये ठीक, मैं तन्हा उदास बैठा था
मैं उसकी ताब से खो कर हवास बैठा था
नज़र उठा के तेरी सिम्त कैसे करता मैं
नज़र से चल के कोई दिल के पास बैठा था
कहीं नदी की रवानी थमी थी पत्थर से
कहीं लिये कोई सदियों की प्यास बैठा था
है मोजिज़ा कि ख़ुदा का करम बहा मुझ पर
वो तर बतर हुआ जो मेरे पास बैठा था
जलीं वहीं पे दुकानें बहुत सी कपड़ों की
जहाँ सड़क पे कोई बे लिबास बैठा था
उधर से गोलियाँ चलतीं, इधर से पत्थर थे
खबर ये देख के, मैं बद हवास बैठा था
डरी हुयी थी हक़ीक़त, वो बोलती कैसे
टिकाये अस्लहे सर पर, क़यास बैठा था
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरनीय मोहित भाई , आपका हृदय से अभार , सराहना के लिये
आदरणीय अफरोज़ भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सला के लिये आभार ।
टिकाये - टिकाए से सहमत हूँ , आवश्यक सुधार कर लूँगा , दूसरी सलाह विचारणीय है .. सोच रहा हूँ , आपका पुनः आभार ।
आदरणीय सलीम भाई , आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आ. श्याम नाराइन भाई , गज़ल की सराहना के लिये आभार आपका
आ. गिरिराज जी ग़ज़ल पर आए सुझाव काबिल ए गौर है
बधाई आ. गिरिराज जी.
अफरोज़ साहब से सहमत हूँ
सादर
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