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ग़ज़ल नूर की -जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है,

22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 22/ 2 
.
जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है,
रो लेता हूँ, रो लेने से मन हल्का हो जाता है.
.
मुश्किल से इक सोच बराबर की दूरी है दोनों में,
लेकिन ख़ुद से मिले हुए को इक अरसा हो जाता है.
.
फोकस पास का हो तो मंज़र दूर का साफ़ नहीं रहता,
मंजिल दुनिया रहती है तो रब धुँधला हो जाता है.
.
मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे में कोई काम नहीं मेरा
अना कुचल लेता हूँ अपनी तो सजदा हो जाता है.
.
ख़ुद की जानिब क़दम बढ़ाये जाता हूँ मैं सदियों से, 
कभी सफ़र में फ़ानी दुनिया में रुकना हो जाता है.
.
यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.
.
हरदम लड़ता रहता है हर बात पे मुझ से मेरा दिल
और मेरे पीछे हटते ही समझौता हो जाता है.
.
जब वो गले लगाता है तो रूह महकती है मेरी,
बारिश की पहली बूँदों से घर सौंधा हो जाता है.
.
“नूर” वली से लगते हो जब मैख़ाने के होते हो 
लेकिन दुनिया के होते ही सच झूठा हो जाता है..
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 2141

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2017 at 10:14pm

शुक्रिया नीरज जी,
मैं   ग़ज़ल यह सोचकर  नहीं कहता कि किसे क्या पसंद है .. मेरे लिए मेरा आनंद सर्वोपरी है..श्रोता   की पसंद मुझसे शीला और मुन्नी नहीं लिखवा सकती.
जैसे कक्षा 10 में ताज़ा ताज़ा फिजिक्स पढ़े    छात्र को quantum और meta physics हवा हवाई है लेकिन   आइन्स्टीन  के लिए जीवन उसी तरह मैं आपकी टिप्पणी   को वैचारिक मतभेद नहीं मानता ... 
हो   सकता है कुछ दहाइयों के बाद आप इस से कनेक्ट कर पायें. न भी हो पाए तो कोई मलाल नहीं.. सबका  अपना अपना   zone है. बैंड है ....
उस    जहान  की चिंता होती तो ये शेर नहीं कहता कि .
कोई  उम्मीद बिखरने  के डर से निकला था
ख़ुदा ख़याल है जहन-ए- बशर से निकला था.....
फिर  भी आपका आभार ...
प्रिय मित्र अमीर इमाम का शेर फिर से आपके लिए कहता हूँ ..
.
इस   शाइरी में कुछ  नहीं नुक्क़ाद के लिये 
दिलदार चाहिए कोई दीवाना चाहिए 
.
सादर 

Comment by Mohammed Arif on September 16, 2017 at 10:11pm
आदरणीय निलेश जी आदाब, बेजोड़-बेमिसाल ग़ज़ल । हर शे'र में ताज़गी का अहसास साफ़ नज़र आ रहा है । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2017 at 10:02pm

शुक्रिया आ. बसंत जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2017 at 10:01pm

शुक्रिया आ. बृजेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2017 at 10:01pm

शुक्रिया आ. मोहित मुक्त जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2017 at 10:01pm

शुक्रिया आ. तस्दीक़ अहमद साहब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 16, 2017 at 10:00pm

शुक्रिया आ. शिज्जू भाई 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 16, 2017 at 8:14pm
वाह वाह आदरणीय बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है..सादर
Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 16, 2017 at 7:22pm

लाजबाब ग़ज़ल आदरणीय, वाह 

Comment by Niraj Kumar on September 16, 2017 at 7:18pm

आदरणीय निलेश जी,

बहुत खूब! बेहतरीन ग़ज़ल हुई है.

यह टिप्पणी इसके बावजूद है कि फैशनेबल सूफिज्म का हवाहवाई दर्शन मुझे बहुत पसंद नहीं. अपनी इस दुनिया को ही हम और बेहतर करने की कोशिश में लगें तो अना अपने आप गुम हो जाती है. और फ़िलहाल तो मुझे उस दुनिया की सोचने की बिलकुल फुर्सत नहीं है आनंद नारायण मुल्ला के शब्दों में :

वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फुर्सत 

हमें गुनाह भी करने को ज़िन्दगी कम है 

लेकिन वैचारिक मतभेद एक तरफ शायरी के लिहाज़ से सारे शेर बेहतर हैं . ये शेर खास तौर पर पसंद आया :

यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब 
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.

सादर

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