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जैसे धुल कर आईना फ़िर चमकीला हो जाता है,
रो लेता हूँ, रो लेने से मन हल्का हो जाता है.
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मुश्किल से इक सोच बराबर की दूरी है दोनों में,
लेकिन ख़ुद से मिले हुए को इक अरसा हो जाता है.
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फोकस पास का हो तो मंज़र दूर का साफ़ नहीं रहता,
मंजिल दुनिया रहती है तो रब धुँधला हो जाता है.
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मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे में कोई काम नहीं मेरा
अना कुचल लेता हूँ अपनी तो सजदा हो जाता है.
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ख़ुद की जानिब क़दम बढ़ाये जाता हूँ मैं सदियों से,
कभी सफ़र में फ़ानी दुनिया में रुकना हो जाता है.
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यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.
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हरदम लड़ता रहता है हर बात पे मुझ से मेरा दिल
और मेरे पीछे हटते ही समझौता हो जाता है.
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जब वो गले लगाता है तो रूह महकती है मेरी,
बारिश की पहली बूँदों से घर सौंधा हो जाता है.
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“नूर” वली से लगते हो जब मैख़ाने के होते हो
लेकिन दुनिया के होते ही सच झूठा हो जाता है..
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया नीरज जी,
मैं ग़ज़ल यह सोचकर नहीं कहता कि किसे क्या पसंद है .. मेरे लिए मेरा आनंद सर्वोपरी है..श्रोता की पसंद मुझसे शीला और मुन्नी नहीं लिखवा सकती.
जैसे कक्षा 10 में ताज़ा ताज़ा फिजिक्स पढ़े छात्र को quantum और meta physics हवा हवाई है लेकिन आइन्स्टीन के लिए जीवन उसी तरह मैं आपकी टिप्पणी को वैचारिक मतभेद नहीं मानता ...
हो सकता है कुछ दहाइयों के बाद आप इस से कनेक्ट कर पायें. न भी हो पाए तो कोई मलाल नहीं.. सबका अपना अपना zone है. बैंड है ....
उस जहान की चिंता होती तो ये शेर नहीं कहता कि .
कोई उम्मीद बिखरने के डर से निकला था
ख़ुदा ख़याल है जहन-ए- बशर से निकला था.....
फिर भी आपका आभार ...
प्रिय मित्र अमीर इमाम का शेर फिर से आपके लिए कहता हूँ ..
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इस शाइरी में कुछ नहीं नुक्क़ाद के लिये
दिलदार चाहिए कोई दीवाना चाहिए
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सादर
शुक्रिया आ. बसंत जी
शुक्रिया आ. बृजेश जी
शुक्रिया आ. मोहित मुक्त जी
शुक्रिया आ. तस्दीक़ अहमद साहब
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
लाजबाब ग़ज़ल आदरणीय, वाह
आदरणीय निलेश जी,
बहुत खूब! बेहतरीन ग़ज़ल हुई है.
यह टिप्पणी इसके बावजूद है कि फैशनेबल सूफिज्म का हवाहवाई दर्शन मुझे बहुत पसंद नहीं. अपनी इस दुनिया को ही हम और बेहतर करने की कोशिश में लगें तो अना अपने आप गुम हो जाती है. और फ़िलहाल तो मुझे उस दुनिया की सोचने की बिलकुल फुर्सत नहीं है आनंद नारायण मुल्ला के शब्दों में :
वो कौन हैं जिन्हें तौबा की मिल गयी फुर्सत
हमें गुनाह भी करने को ज़िन्दगी कम है
लेकिन वैचारिक मतभेद एक तरफ शायरी के लिहाज़ से सारे शेर बेहतर हैं . ये शेर खास तौर पर पसंद आया :
यादों के नन्हे छौने जब चरते हैं माज़ी की दूब
पीछे पीछे फिरता ये मन चरवाहा हो जाता है.
सादर
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