१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
मापनी 1222 1222 1222 1222
इधर जाता तो अच्छा था, उधर जाता तो अच्छा था.
रहा भ्रम में, कहीं पर यदि, ठहर जाता तो अच्छा था.
उभर आता तो अच्छा था, हृदय का घाव चेहरे पर,
हमारा दर्द भी हद से, गुजर जाता तो अच्छा था.
उधर घुसकर गए भी थे, सिखाया था सबक भी कुछ,
वहाँ पर यदि तिरंगा भी फहर जाता तो अच्छा था
किनारे पर रहा अठखेलियाँ करता, न पाया कुछ,
अगर गहरे समंदर में उतर जाता तो अच्छा था
उन्होंने ख्वाब दिखलाये, सभी को आसमानों के.
जमीं पर एक घर भी अब, सँवर जाता तो अच्छा था
हमारे गाँव की मिटटी, रही बुनियाद शहरों की,
कँगूरों तक भी थोड़ा सा, असर जाता तो अच्छा था
पहाड़ों से बहा तो जल, गया देखो समंदर में,
जहाँ उसकी जरूरत थी, ठहर जाता तो अच्छा था
“मौलिक एवं अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय नन्दकिशोर दुबे जी आपकी उर्जावान प्रतिक्रिया का ह्रदय से आभार
आदरणीय Niraj Kumar जी आपकी हौसलाअफजाई का दिल से शुक्रिया, मेहनत सफल हुई , आपको रचना पसंद आई.
आदरणीय बसंत जी,
मतले का पहला मिसरा क्लासिकल उर्दू शायरों की याद दिलाता है. आपने बाकी ग़ज़ल में भी इस अंदाज़ को बरकरार रखते हुए हिंदी शब्दों का खूबसूरती से इस्तेमाल किया है.
दाद के साथ मुबारकबाद.
सादर
आभार आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका , सादर नमन
आदरणीय Samar kabeer जी, आपके सुझाव का ह्रदय से स्वागत है. सुधार कर दिया है
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी हौसला अफजाई के लिए अतिशय आभार आपका, जी अपेक्षित सुधार कर दिया है
आदरणीय Shyam Narain Verma जी हौसला अफजाई के लिए अतिशय आभार आपका,
आदरणीय SALIM RAZA REWA जी हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया आपका
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