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खोया रहता हूँ मैं जिनकी यादों में
उनकी ही खुशबू है मेरी साँसों में
.
दिल के हाथों था मजबूर बहुत वरना
आता कब मैं उनकी मीठी बातों में
.
उनको खो देने का भी अहसास हुआ
रंग-ए-हिना जब देखा उनके हाथों में
.
खो कर दुनिया आख़िर उनको पाया है
यूँ ही नहीं है नाम मेरा अफसानों में
.
हर शय में उनका ही चेहरा दिखता है
उनके ही सपने हैं मे री आँखों में
.
उनको पाकर मैंने सब कुछ पाया है
खुशियों की सौग़ात है मेरे हांथो में
.
हर पल मुझको उनकी याद सताती है
नीद नहीं आती है अब तो रातों में
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय नीलेश जी , अपने छोटे भाई की बात दिल से न लीजिएगा ,
आपकी वजह से मिसरे में बेहतर मशवरा मिल गया , और कही कुछ हो तो जरूर ध्यान केंद्रित कराएँ आभार ,
आली जनाब समर साहिब ,
आपके मशवरे से दिल को तसल्ली हुई मैं यह सुधर कर लूंगा आपका तहे दिल से शुक्रिया ,
आदरणीय नीलेश जी , अपने छोटे भाई की बात दिल से न लीजिएगा ,
आपकी वजह से मिसरे में बेहतर मशवरा मिल गया , और कही कुछ हो तो जरूर ध्यान केंद्रित कराएँ आभार ,
शुक्रिया आ. समर सर इस ख़ुलासे के लिए...
मैं हमेशा उलझ जाता हूँ इसमें
सादर
आदरणीय नीलेश जी ,
आपका मत सही लगा इसलिए हमने अपना मत हटा लिया ,शेर में आपका मशवरा अच्छा है ,
अब इस बात पर गुनी जन कुछ बात करे तो एक साथ सुधार करता हूँ।
अवगत करने के लिए शुक्रिया ,
आ. सलीम रज़ा साहब,
अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई ...
मैं मंच के गुणीजनों से जानना चाहूँगा कि ग़ज़ल का काफ़िया मतले से तय होगा या हुस्न-ए-मतला से क्यूँ कि यहाँ मतले में ओं स्वर काफ़िया है लेकिन हुस्न-ए-मतला में आरों काफ़िया हो गया है.
इस शेर को यूँ करें तो शायद गैय्यता बढ़ जायेगी
.
दिल के हाथों था मजबूर बहुत वरना
आता /कब/ मैं उनकी मीठी बातों में
.
पुन: बधाई
सादर
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