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ग़ज़ल नूर की- सीने से चिमटा कर रोये,

२२, २२, २२, २२ 
.
सीने से चिमटा कर रोये,
ख़ुद को गले लगा कर रोये.
.
आईना जिस को दिखलाया,  
उस को रोता पा कर रोये.
.
इक बस्ते की चोर जेब में,
ख़त तेरा दफ़ना कर रोये.
.
इक मुद्दत से ज़ह’न है ख़ाली,
हर मुश्किल सुलझा कर रोये.

तेरी दुनिया, अजब खिलौना,
खो कर रोये, पा कर रोये. 
.
सीखे कब आदाब-ए-इबादत,
बस,,,, दामन फैला कर रोये.
.
हम असीर हैं अपनी अना के,
लेकिन मौका पा कर रोये.
.
सूरज जैसा “नूर” है लेकिन,
जुगनू एक उड़ा कर रोये.   
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 1502

Comment

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Comment by Samar kabeer on October 4, 2017 at 3:40pm
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
कुछ बारीक बातों की तरफ़ आपकी तवज्जो दिलाना चाहूँगा ।

'इक बस्ते की चोर जेब में'
ये मिसरा यूँ होना चाहिए:-
'बस्ते की इक चोर जेब में'
'सदियाँ होंठ दबाकर रोये'
'सदियों होंठ दबा कर रोये'
'सूरज जैसा 'नूर'है लेकिन'
सूरज में नूर नहीं होता,आग होती है,इस दृष्टि से इस मिसरे को देखियेगा ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 4, 2017 at 3:24pm

शुकिया आ अफरोज़ जी 

Comment by Afroz 'sahr' on October 4, 2017 at 12:13pm
आदरणीय निलेश जी शेर दर शेर दाद पेश करता हूँ कुबूल करने की ज़हमत गवारा करें।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 4, 2017 at 11:00am

शुक्रिया आ. दिनेश भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 4, 2017 at 10:59am

शुक्रिया आ सलीम साहब 

Comment by दिनेश कुमार on October 4, 2017 at 8:21am
सीखे कब आदाब-ए-इबादत,
बस,,,, दामन फैला कर रोये

Bilkul sahi ... Aisa bhi hua hai bahut baar..
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई आ. निलेश सर जी। वाह
Comment by दिनेश कुमार on October 4, 2017 at 8:21am
सीखे कब आदाब-ए-इबादत,
बस,,,, दामन फैला कर रोये

Bilkul sahi ... Aisa bhi hua hai bahut baar..
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई आ. निलेश सर जी। वाह
Comment by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 7:54am
जनाब नीलेश नूर साहिब,
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई

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