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ग़ज़ल ( कोई देखे हमें महब्बत से )

फाइलातुन -मफ़ाइलुन -फेलुन 


दिल की हसरत यही है मुद्दत से |
कोई देखे हमें महब्बत से |

नामे उल्फ़त से जो नहीं वाक़िफ़
देखता हूँ मैं उसको हसरत से |

सब्र का फल तो खा के देख ज़रा
क्यूँ है मायूस उसकी रहमत से |

जिस ने देखा उन्हें यही बोला
उनको रब ने बनाया फ़ुर्सत से |

उसके हाथों में आइना दे दो
बाज़ आए नहीं जो गीबत से |

देखिए तो करम अज़ीज़ों का
वो हैं बे ज़ार मेरी सूरत से |

तू ने तस्दीक़ बोला है सच ही
यूँ नहीं तू घिरा मुसीबत से |

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 6, 2017 at 5:22pm
जनाब अफ़रोज़ साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया । अफ़रोज़ साहिब कमेंट से पहले शेर को अच्छी तरह पढ़ा कीजिये सब्र का त अल्लुक़ ख़ुदा से ही होता है । मक़्ते के उला मिसरे में सच का जोर ही लफ्ज़ ही पर है ,आपको बता दूं छोटी बह्र में भर्ती के लफ्ज़ की गुंजाइश नहीं होती
Comment by Tasdiq Ahmed Khan on October 6, 2017 at 5:13pm
जनाब सलीम साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया
Comment by राज़ नवादवी on October 6, 2017 at 4:34pm

जनाब तसदीक़ अहमद साहब,सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on October 6, 2017 at 3:01pm
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Afroz 'sahr' on October 6, 2017 at 2:20pm
आदरणीय तस्दीक़ साहिब आदाब उम्दा ग़ज़ल है बहुत मुबारकबाद आपको। ग़ज़ल के तीसरे शेर में रब्त नहीं है। ऊला मिसरा यूँ हो सकता है। "सब्र का फल भी हाथ आएगा" मक्ते में हर्फ़ "ही" भर्ती का है। सादर,,
Comment by SALIM RAZA REWA on October 6, 2017 at 1:02pm
जनाब तस्दीक साहब,
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए मुबारक़बाद..

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