२१२ २१२ २१२ २१२
फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
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-सौरभ
Comment
आदरणीय मो. आरिफ़ जी, हौसलाअफ़ज़ाई का शुक्रिया. सहयोग बना रहे..
शुभ-शुभ
आ. सौरभ सर,
आपके अपने ही अंदाज़ की ग़ज़ल है ..हमेशा की तरह ख़ूब हुई है ...
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अंतिम मिसरा
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एक बाप जुट गया, दुपहरी खिल उठी शुरुअ में २१२१ होने से बहर चूक रहा है ...
सादर
वाह वाह आदरणीय सौरभ भाई, बहुत दिनों के बाद आपकी ग़ज़ल पढ़ने को मिली है. सुन्दर रचना की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें. सादर!
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