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ग़ज़ल "हाल-ए-दिल अपना कभी मैं कह न पाया"

2122 2122 2122

रोज जीना रोज मरना है सिखाया।
मुफ़लिसी ने पाठ ये अच्छा पढ़ाया।।

दोस्ती का अस्ल मतलब यूँ बताया।
हर कदम उसने सही रस्ता दिखाया।।

बाँटना दुख सुख कभी मुझको न आया।
हाल-ए-दिल अपना कभी मैं कह न पाया।।

ख़ुद ब ख़ुद इक दिन इशारे से बुलाया।
प्यार अपना इस तरह उसने जताया।।

वो भरोसा प्यार में करता कभी तो।
क्यो मुझे हर बार उसने आज़माया।।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by surender insan on October 16, 2017 at 11:37pm
मोहतरम समर कबीर साहब आदाब। बहुत बहुत आभार आपका जी आपके सुझाव अनुसार बदलाव करूंगा जी। बहुत बहुत शुक्रिया जी सादर नमन जी।
Comment by surender insan on October 16, 2017 at 11:35pm
आदरणीय salim raza rewa जी बहुत बहुत आभार आपका ।सादर नमन जी।
Comment by surender insan on October 16, 2017 at 11:34pm
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी बहुत बहुत आभार जी ।सादर नमन जी।
Comment by Samar kabeer on October 15, 2017 at 5:56pm
जनाब सुरेन्द्र इंसान जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
पहले मतले का सानी मिसरा अगर यूँ कर लें तो कथ्य और रवानी बढ़ जायेगी:-
'मुफ़लिसी ने पाठ ये अच्छा पढ़ाया'
Comment by SALIM RAZA REWA on October 15, 2017 at 11:44am
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई.
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 15, 2017 at 9:47am
बहुत बढ़िया प्रस्तुति। हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र इंसान जी।
Comment by surender insan on October 15, 2017 at 9:38am
जी आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी बहुत बहुत आभार जी ।सादर नमन जी।
Comment by Mohammed Arif on October 15, 2017 at 7:35am
बाँटना दुख सुख कभी मुझको न आया।
हाल-ए-दिल अपना कभी मैं कह न पाया। बहुत ही सच्चा शे'र है ।
शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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