पीला माहताब ...
ठहरो न !
बस
इक लम्हा
रुक जाओ
मेरे शानों पे
जरा झुक जाओ
मेरे अहसासों की गठरी को
जरा खोलकर देखो
जज्बातों के ज़जीरों पे
हम दोनों की सांसें
किस क़दर
इक दूसरे में समाई हैं
मेरे नाज़ार जिस्म के
हर मोड़ पर
तुम्हारी पोरों के लम्स
मुझे
तुम्हारे और करीब ले आते हैं
थमती साँसों में भी
मैं तुम्हारी नज़रों की नमी से
नम हुई जाती हूँ
देखो
वो अर्श के माहताब को
हिज़्र में चांदनी के
शायद पीला हो गया है
मगर
मेरे फ़ना होने के बाद भी
तुम्हारी उल्फ़त
तुम्हारे इस माहताब को
कभी
अपने ज़हन में
पीला
न होने देगी
(नाज़ार=कमजोर)
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुरेन्दर नाथ सिंह जी प्रस्तुति आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभारी है।
आदरणीय विजय निकोर साहिब, सादर प्रणाम ... प्रस्तुति के भावों को अपनी मनोहारी प्रतिक्रिया से मान देने का दिल से आभार।
//थमती साँसों में भी
मैं तुम्हारी नज़रों की नमी से
नम हुई जाती हूँ //................. वाह, वाह, वाह!
सदैव समान आपने एक और सुन्दर रचना प्रस्तुत की है। हार्दिक बधाई, आदरणीय सुशील जी।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब , सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया एवं सुझाव का दिल से आभारी है।
आदरणीय डॉ आशुतोष जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय बृजेश जी सृजन को आत्मीय स्नेह देने का दिल से आभार।
आदरणीय सुशील जी प्रेम की शानदार अभिव्यक्ति करती इस शसक्त रचना पर हार्दिक बधाई सादर
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