३००वीं कृति .... श्रृंगार दोहे ...
मन चाहे करती रहूँ , दर्पण में शृंगार।
जब से अधरों को मिला, अधरों का उपहार।1।
अब सावन बैरी लगे, बैरी सब संसार।
जब से कोई रख गया, अधरों पे अंगार।2।
नैंनों की होने लगी , नैनों से ही रार।
नैन द्वन्द में नैन ही, गए नैन से हार।3।
जीत न चाहूँ प्रीत में , मैं बस चाहूँ हार।
'दे दे मेरी देह को', स्पर्शों का शृंगार।4।
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ प्राची सिंह जी सृजन को अपनी मनोहारी प्रशंसा से अलंकृत करने का दिल से आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी सृजन के भावों को सहमति देती आत्मीय प्रशंसा से सृजन सार्थक हुआ। आपकी शुभकामनाओं का हार्दिक आभार।
वाह बहुत सुन्दर शृंगारिक दोहे
नैंनों की होने लगी , नैनों से ही रार।
नैन द्वन्द में नैन ही, गए नैन से हार।....शानदार शब्द चित्र
सभी एक से एक बढ़िया है
बहुत बहुत बधाई आ० सुशील सरना जी
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब। ... सृजन के भावों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से आभार। आपका कहन बिलकुल सही है। मैं इसे अभी एडिट कर सुधार हूँ। इस हेतु आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय बृजेश कुमार जी सृजन आपकी स्नेहिल अभिव्यक्ति का आभारी है।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब, आदाब, सृजन के भावों को अपनी अमूल्य प्रशंसा से शोभित करने का दिल से आभार।
आदरणीय सलीम रज़ा साहिब, आदाब , सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का आभारी है।
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