गुस्ताखियाँ....
शानों पे लिख गया कोई इबारत वो रात की।
...महकती रही हिज़ाब में शरारत वो रात की।
......करते रहे वो जिस्म से गुस्ताखियाँ रात भर -
..........फिर ढह गयी आगोश में इमारत वो रात की।
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Dr Ashutosh Mishra साहिब सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार।
खूबसूरत रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील जी सादर
आदरणीय सलीम रज़ा रेवा साहिब, आदाब। ... सर सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... सृजन पर आपकी मुक्त व्याख्या का दिल से आभार। अपने प्रयास को सराहा आपके तहे दिल से शुक्रिया। प्रयास करूंगा को अपने सृजन को अरूज़ में ढाल सकूं।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब, आदाब सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार।
आदरणीय Afroz 'sahr' जी आदाब , मैंने इसे मुक्तक के रूप में लिखा है। बाकी इसमें अहसासों की और जिस्मानी मीठी सी नोंक झोंक है। भावों को शब्दों में ढालने का प्रयास भर है। आप आये , आपका तहे दिल से शुक्रिया।
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