*1222 1222 1222 122*
ज़माना फिर न जाने क्यों ख़फ़ा होने लगा है।
मुहब्बत भी निभाना अब सज़ा होने लगा है।।
कभी वादे किये जिसने कसम खाकर ख़ुदा की,
वही फिर अब न जाने क्यों ज़ुदा होने लगा है।।
वहाँ पर हाल कैसा है, वही बस जान पाया,
यहाँ पर ज़ख़्म, ज़ख़्मों की दवा होने लगा है।।
समझ बैठा था' तुमको मैं, मुहब्बत का समंदर,
गुमाँ मेरा यहाँ आकर, रफ़ा होने लगा है।।
मुहब्बत का हमेशा ही यही अंज़ाम होता,
शमा से मिल के' परवाना फ़ना होने लगा है।।
नज़र से पीने' का पहले, मज़ा दिलकश लगा था,
मगर अब ज़ाम पीने का, जिया होने लगा है।।
यहाँ पर 'दीप' का तो है, वही अंदाज़ कायम,
वहाँ हर शख़्स अब शायद, ख़ुदा होने लगा है।।
-प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप'
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब समर कबीर साहिब!
सलाह देने के लिए शुक्रिया. बिलकुल सही कहा अपने रब्त नहीं है. क्योकि मुझे भी यह मिसरे पढने में समस्या हो रही है.
आद० सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'
तहे दिल से शुक्रिया
आद० बासुदेव अग्रवाल 'नमन' दादा जी,
बहुत बहुत धन्यवाद.
मुहतरम शेख शहजाद उस्मानी साहिब.
ग़ज़ल में शिरकत और हौसला आफजाई के लिए शुक्रिया
बहुत खूबसूरत एहसास । हार्दिक बधाई।
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