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जिंदगी तुझ पर ये दिल भी, कर गया कुर्बान क्यों?

बेखब़र क्यों हो गया तू?   हो  गया  अनजान  क्यों?
ज़िंदगी तुझ पर ये दिल भी, कर गया कुरबान क्यों?

बेबसी  कुछ  भी  नहीं  थी,  जिंदगी  के   दरमियाँ,
चार दिन का बन गया फिर, तू मिरा महमान क्यों?

पूछती   है  हाल  अब  तो,  मुझसे'  मेरी  रहगुज़र,
हो  गई  है,  आजकल  ये,  ज़िन्दगी  वीरान क्यों?

बोझ सी  लगने  लगी  है,  जिंदगी  कुछ  रोज़  से,
कोई' ऐसा मुझ पे' जाने, कर  गया  अहसान क्यों?

बन  गई  गुरबत  भी दुश्मन, ज़िन्दगी की राह में,
ख्वाहिशें क्यों मिट गईं हैं? लुट गये अरमान क्यों?

'दीप' को बदले  वफ़ा  के,  मिल  रहीं  तन्हाईयाँ,
जिंदगी हर मोड़ पर अब, लग रही सुनसान क्यों?

-प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप'

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 5, 2017 at 3:53pm

हार्दिक बधाई ।

Comment by Manoj kumar shrivastava on December 4, 2017 at 12:23pm
आदरणीय पाण्डेय जी, इस रचना पर मेरी बधाई स्वीकार करें।
Comment by Mohammed Arif on December 2, 2017 at 12:53pm
आदरणीय प्रदीप कुमार जी आदाब,
बहुत ही बेहतरन ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की बेशक़ीमती इस्लाह का संज्ञान लें ।
Comment by Samar kabeer on December 2, 2017 at 12:08pm
जनाब प्रदीप कुमार पाण्डेय'दीप'जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
इस मंच पर ग़ज़ल के साथ अरकान लिखने का नियम है,जो आपने नहीं लिखे?

'पूछता है हाल अब तो मुझसे'मेरा रहगुज़र'
इस मिसरे में 'रहगुज़र'शब्द स्त्रीलिंग है, इसलिये इस मिसरे को यूँ कर लें :-
'पूछती है हाल अब तो मुझसे मेरी रहगुज़र'

'दीप'तन्हाई मयस्सर,हो रही बदल-ए; वफ़ा'
उस मिसरे में 'बदल'शब्द में इज़ाफ़त नहीं लगेगी,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं :-
''दीप'बदले में वफ़ा के मिल रहीं तन्हाईयाँ'

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