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बहर - 2122 2122 2122 212

जिंदगी में फिर मुझे बचपन मेरा हँसता मिला ......
जब हुआ बटवारा तो माँ का मुझे कमरा मिला ........

आज़माये थे बहुत पर शख्स हर झूठा मिला ,
तेरे रूप में यार मुझको एक आईना मिला .......

राह में मैंने लिखा देखा था जिस पत्थर पे माँ ......
लौट कर आया तो इक बच्चा वहाँ सोता मिला ......


बुझ गये थे दीप सारे प्यार के उस बस्ती में
दर्द का इक दीप मुझको फिर वहाँ जलता मिला .......


जी रही थी वो फ़क़त सच्ची मुहब्बत के लिए ,
पर उसे जो भी मिला वो ज़िस्म का प्यासा मिला ........


यूँ तो वो मेरी ग़ज़ल पर " वाह " करता था नहीं
पर वो तन्हाई में फिर मेरी ग़ज़ल कहता मिला .......

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Comment by Afroz 'sahr' on December 4, 2017 at 2:16pm
आदरणीय पंकजोम जी इस रचना पर बधाई आपको,
हुस्न ए मतला का सानी मिसरा बह्र में नहीं है।
कई मिसरों में शिल्प कमज़ोर है, ग़ज़ल को थोड़ा और वक़्त दीजिएगा सादर,,,
Comment by Mohammed Arif on December 3, 2017 at 5:34pm
आदरणीय पंकजोम जी आदाब,
अच्छे ख़्यालातों से गूँथी बेहतरीन ग़ज़ल । हर शे'र उम्दा । दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
Comment by नाथ सोनांचली on December 3, 2017 at 2:53pm
आद0 पंकजोम जी सादर अभिवादन, उम्दा गजल कही आपने, उसके लिए दाद और मुबारकबाद पेश करता हूँ। मतले के ऊला में "मुझे बचपन मेरा हँसता" इसमें मुझे और मेरा दोनों का एक साथ प्रयोग थोड़ा खटक रहा है। हो सकता है मैं गलत भी हूँ। शेष औरो की रॉय का मुझे भी इंतिजार रहेगा।सादर
Comment by डॉ पवन मिश्र on December 3, 2017 at 1:55pm
बेहद उम्दा
Comment by Manoj kumar shrivastava on December 3, 2017 at 1:42pm

आदरणीय प्रेम जी बहुत ही अच्छी रचना है, बधाई स्वीकार करें।

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