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हमें जब आज़माता है तुम्हारी याद का मौसम
सुकूँ भी साथ लाता है तुम्हारी याद का मौसम
ग़मों ने कोशिशें तो लाख कीं पलकें भिंगोने की
लबों पर मुस्कुराता है तुम्हारी याद का मौसम
हमारे रूबरू ठहरो कभी पल भर तो समझाएं
हमें कितना सताता है तुम्हारी याद का मौसम
इसे मैं छोड़ आता हूँ कहीं सुनसान सहरा में
मगर फिर लौट आता है तुम्हारी याद का मौसम
वहाँ तुम हो तुम्हारी पुरकशिश कमसिन अदाएं हैं
यहाँ 'ब्रज' गुनगुनाता है तुम्हारी याद का मौसम
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय तस्दीक़ जी आपके सुझाव 'पल भर' से शेर और अधिक खूबसूरत हो जायेगा..आपका हार्दिक आभार अभी सुधार करता हूँ..सादर
आदरणीय समर कबीर जी रचना पटल पे आपकी उपस्थिति सदैव ही उत्साहवर्धक होती है..स्नेह बनाये रखें..सादर
आदरणीय सुशील सरना जी खूबसूरत शब्दों में सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार..सादर
आदरणीय अजय तिवारी जी बहुत बहुत धन्यवाद..सादर
आदरणीय सुरेन्द्र जी रचना पटल पे आपका स्वागत संग आभार व्यक्त करता हूँ..सादर
आदरणीय अफरोज जी आपका स्वागत एवं आभार..अपने टंकण त्रुटियों की ओर ध्यानाकर्षण किया उन्हें में शीघ्र ही दूर करता हूँ..चौथे शेर के विषय में आपकी सलाह स्वागतयोग्य है।ये ऐसी भूल है जिसे मुझ जैसे नए लोग अक्सर नजरन्दाज करते है।आपका सुझाव भी खूबसूरत है..सादर
आदरणीय मुहम्मद आरिफ जी आपका हार्दिक आभार...सादर
वाह बेहतरीन गजल कही है आदरणीय ब्रजेश भाई जी
जनाब ब्रजेश कुमार साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें ।टाइप गलती के बारे में अफ़रोज़ साहिब ने इशारा कर दिया है ।
शेर 3 उला मिसरे में दो पल की जगह इक पल या पल भर ज़्यादा सही रहेगा ,देखियेगा
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