1.
सच का कहीं दूर तक
नहीं कोई पता है।
हाँ ये सच है
कि बहुत कुछ
झूठ पर टिका है।
2.
रेत मुठ्ठी से जब
फिसल जाती है ,
जिंदगी कुछ कुछ
समझ में आती है।
3.
रोज रोज के तजुर्बे
यूँ बीच बीच में
बांटा न करो ,
ये जिंदगी गर
एक सबक है तो
उसे पूरा तो हो लेने दो
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय महेंद्र कुमार जी , आपका ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।
आदरणीय लक्षमण कुमार धामी जी , आपका ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।
अच्छी क्षणिकाएँ हैं आ. विजय शंकर जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आ. भाई विजय जी, सुंदर प्रस्तुति हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय सुरेद्र नाथ सिंह कुशक्षत्रप जी , प्रशस्ति के लिए आभार एवं बधाई हेतु धन्यवाद , सादर।
आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , आपके द्वारा व्यक्त सुन्दर उदगारों के लिए ह्रदय से आभार। आपकी बहुत बारीक सीख के लिए अलग से बहुत बहुत आभार। अवश्य अपनाऊंगा। बधाई के लिए धन्यवाद , सादर।
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी , विशद व्याख्या के लिए ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी , आपके उदगारों के लिए ह्रदय से आभार। बधाई केलिए धन्यवाद , सादर।
आद0 विजय शंकर जी सादर अभिवादन। बेहतरीन क्षणिकाएँ हुई है। बहुत बहुत बधाई
आली जनाब डॉ.विजय शंकर जी आदाब,बहुत उम्दा और प्रभावशाली क्षणिकाएं हुईं,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
तीसरी क्षणिका में 'तजुर्बे' को "तज्रिबे" कर लीजियेग ।
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