नदी के ऊपर का पुल पुल पर से रात और दिन गाड़ियों की आवाजाही को देख उसके नीचे बहती हुई नदी ने पूछा ," तुमको परेशानी नहीं होती ! दिन भर बजन लदा रहता है तुमपर । " " अरी पागल ! ये भी कोई बात है भला , अब लोग मुझपर से गाडी नहीं ले जायेंगे तो तुझे पार कैसे करेंगे।" पुल की इस बात पर नदी हँस पड़ी। पुल ने पूछा ," इसमें हँसने की क्या बात है। तुम वर्षों से यहाँ से बहती आई हो, तुम्हारा पाट भी विशाल है और प्रवाह भी। पर सच कहूँ तो कभी कभी मुझे डर लगता है तुमसे।" " डर और मुझसे!वो क्यों भला?" " जब बाढ़ की स्थिति होती है तो तुम्हारे विकराल रूप को देखकर लगता है जाने कब तुम मुझे भी धराशाही कर दो और अपने प्रवाह में मुझे बहा ले चलो।" "हां ये तो है।" नदी यह कहकर चुप हो गयी। अगले ही पल जब गाड़ियों को पुल पर से तेज़ रफ़्तार से दौड़ते हुए देखा तब नदी ने भी अपने डर का इज़हार किया ," जिस गति से गाड़ियों की भीड़ बढ़ रही है ,लगता नहीं विगत भविष्य में इसमें कोई कमी आये ,मुझे तो लगता है कहीं तुम ही न गिर जाओ मुझपर। और तुम्हारे साथ साथ बेकसूर लोग भी मेरी भेंट चढ़ जायेंगे और सारा इल्ज़ाम मुझपर ही लगेगा।" इस तेज़ रफ़्तार से पुल भी परेशान था। उसने अपने मन की बात नदी से साझा की ," सच कहूँ तो मेरी चाह होती है कि लोग मुझपर खड़े होकर तुमको देखें , नीला अम्बर देखें पर एक ये हैं कि ..... उफ्फ्फ्फ्फ़ !" तभी चर्र्रर्रर्रर्र की आवाज़ आई और पलक जपकते ही पुल पर लहू बहता नज़र आया। " हे भगवान!यह मनुष्य भी न , देखो तो पूरी बस उलट गई, कई लोग मारे गए लगता है।" यह कहते हुए पुल उदास हो रहा था। तभी किसी के नदी में कूदने का शोर हुआ। दोनों तरफ़ अब कोहराम था। नदी और पुल फिर भी अपनी जगह थे, जड़ और स्तब्ध!
मौलिक एवं अप्रकाशीत
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बहुत बढिया अभिव्यक्ति दीदी!अच्छी रचना बन पड़ी।बधाई
नमस्ते आदरणीय समर भाई जी| आपको कथा पसंद आई सार्थक हुआ मेरा प्रयास| धन्यवाद् आपका |
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