"लगता है एक तारीख है।" बस्ती में रोने -पीटने की आवाज सुनकर उसने मर्दानी आवाज में कहा।
"अब महीने के लगभग दस दिन यही चीख पुकार मची रहेगी।"दूसरी, ढोलक कसते हुए बोली।
"हाँ... सही कह रही हो...,मन तो करता है निकम्मों के हाथ पैर तोड़ दूँ।"
"तूने तो मेरे दिल की बात कह दी।"
"बेचारी ये औरतें सारा-सारा दिन दूसरों के चूल्हें -चौके समेटती फिरती है।और अंत में ये ईनाम मिलता है।"
"क़िस्मत तो देखो इन जुआरियों ,शराबियों की, निकम्मो को कैसी सोने के अंडे देने वाली मुर्गियां हाथ लगी है।" कि तभी-
"मत मारो ...,मेरी नहीं तो कम से कम अपने होने वाले बच्चे की तो ख्याल करो...,
कसम खाकर कहती हूँ आज पगार नहीं दी बाईसा ने.."
रात के सन्नाटे को चीरती हुई किसी बेबस की करुण याचना, जब उन सभी के कानों से टकराई, तो किसी को एक पल गवाना उचित नहीं लगा।
"बस , अब बहुत हो गया...,चलो बहिनों! आज ये सिलसिला हमेशा के लिए खत्म ही कर देते है।" उसकी भारीभरकम एक आवाज पर पूरी की पूरी टोली उठ खड़ी हुई।
फिर उन सब के हाथ थे या हथौड़े, दर्द भरी कराहें निकल गयी। पूरी बस्ती की मौजूदगी के बाबजूद चारों तरफ सन्नाटा पसरा था। इस सन्नाटे को टोली की मुखिया की चेतावनी ने भंग किया।
"आज के बाद ...अगर बस्ती में किसी मर्द ने औरत पर हाथ उठाया या किसी औरत के रोने-चीखने की आवाज़ आयी....,तो नमूना तुम सब देख चुके हो...।"
उनका सब का रौद्र रूप और जमीन पर बेहाल पड़े साथी की हालत देखकर, मर्दानगी पर इतराते मर्दों के पसीने छूट गए।
वहीं टोली अपने चिर-परिचित अंदाज़ में तालियाँ पीटती जैसे आयी थी वैसे ही अंधेरे में गुम हो गयी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया शानदार अभिव्यक्ति । बेहतरीन प्रस्तुति । बधाई स्वीकार करे।
आदरणीया राहिला जी आदाब,
आज नारी पहले जैसी नारी नहीं रही । वह भली-भाँति अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे मेन जानती है । वह अत्याचार के खिलाफ़ आवाज़ भी उठा रही है जो कि अच्छी बात है । "गुलाबी गेंग" हमारे सामने इसका बेहतरीन उदाहरण है । हाँ, इतना ज़रूर है कि कहीं-कहीं महिलाएँ अत्याचार सहने पर अभिशप्त है । जब तक नारी अपनी आवाज़ बुलंद नहीं करेंगी तब तक वह अत्याचार सहती रहेगी । आपकी लघुकथा का मूल स्वर भी शायद यही है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला आसिफ़ जी।वाह, बेहतरीन लघुकथा।एकदम नया विषय और उतना ही सुंदर प्रस्तुतीकरण।
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