‘अगर मैंने पाँच का यह सिक्का पाखाने में ख़र्च कर दिया और मुझे आज भी काम नहीं मिला तो फिर मैं क्या करूँगा?’ सार्वजनिक शौचालय के बाहर खड़ा जमाल अपनी हथेली पर रखे उस पाँच के सिक्के को देखकर सोच रहा था। तभी उसके पेट में फिर से दर्द उभरा। वह चीख उठा, ‘‘उफ! अल्लाह ने पाखाने और भूख का सिस्टम बनाया ही क्यों?’’
जिस उम्र में जवानी शुरु होती है उस उम्र में उसके चेहरे पर बुढ़ापा था। लेबर चैराहे के कुछ अन्य मजदूरों की तरह पिछले कई दिनों से जमाल को भी कोई काम नहीं मिला था। घर भेजने के बाद जो थोड़े से पैसे उसके पास थे उसमें से अब सिर्फ़ पाँच का एक सिक्का ही बचा था, या यूँ कहें कि उसने बचाया था, कई बार भूखे रहकर तो कई बार रातों को जाग कर। ‘‘यहाँ सोना है तो अब से आठ नहीं दस रुपया देना होगा।’’ मन्दिर के पुजारी ने रेट बढ़ा दिया था।
‘ग़रीबों को बीमारी आती ही क्यों है? और अगर आती है तो बिना दवा के ठीक क्यों नहीं हो जाती? यदि उसने इसे पाखाने में ख़र्च कर दिया और उसे पुनः जाना पड़ गया तो? वह दवा कैसे ख़रीदेगा? क्या वह गंगा जी के किनारे चला जाये?’ उसने अपनी पीठ को छुआ और कहा, ‘‘नहीं।’’ पिछली बार जब वह भोर में वहाँ बैठा था तो किसी ने पीछे से उसे ज़ोरदार लात मारी थी। यही हाल पेट्रोल पंप जैसे निःशुल्क शौचालयों का भी है जहाँ उस जैसे फटेहाल मज़दूरों को घुसने तक नहीं दिया जाता। ‘तो क्या ग़रीब मुफ़्त में पाखाने भी नहीं जा सकता?’ वह एक अन्य गूढ़ प्रश्न पर भी चिन्तन कर रहा था, ‘भला दो दिन भूखे रहने के बाद भी पेट कैसे ख़राब हो सकता है?’
‘शौचालय या दवा?’ बड़ी-बड़ी इमारतों से घिरा छोटे कद का जमाल इसी उधेड़बुन में ग़ुम था। उसके पेट में तू़फ़ान बढ़ता जा रहा था जिसे वह और देर तक नहीं रोक सकता था। तभी उसकी नज़र एक सुनसान नल पर पड़ी। उसे एक विचार सूझा। उसने आसपास देखा और सड़क के किनारे एक दीवार से सट कर खड़ा हो गया।
थोड़ी ही देर में उसका पायजामा पूरी तरह गीला हो चुका था। उसके चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कान थी। उसने सामने लगी उस होर्डिंग की तरफ़ देखा जिसमें एक बड़े से चश्मे के दोनों गोले शीशों के बीच काले रंग से कुछ लिखा था। उसने अपनी जेब से उस आख़िरी सिक्के को निकाला, फिर उसे चूमा और अपनी उँगली व अँगूठे से उसे पकड़कर चश्मे के उन दोनों शीशों को बारी-बारी सिक्के से ढककर देखने लगा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय विजय निकोर जी. हार्दिक आभार. सादर.
सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई।
लघुकथा को पसन्द करने के लिए आपका हृदय से आभार आ. तेज वीर सिंह जी. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
बहुत-बहुत शुक्रिया आ. कल्पना मैम. आभारी हूँ. सादर.
हार्दिक बधाई आदरणीय महेंद्र कुमार जी। बेहतरीन लघुकथा।ज्वलंत समस्या पर सटीक कटाक्ष।सरकार आदेश तो पारित करती है लेकिन उनके अनुपालन की जिम्मेवारी सड़क पर घूमते आवारा लोगों को सोंप दी जाती है।एक आम आदमी की मज़बूरी का अच्छा चित्रण।
बहुत सुंदर लघुकथा हुई है आदरणीय महेंद्र जी| सार्वजनिक शौचालयों में भी पैसे लिए जाते हैं, गरीबों के लिए वहां भी दिक्कत आती ही होगी, एक सामायिक विषय पर आपने कलम चलायी है साधुवाद आपको|
शुक्रिया आ. सुरेन्द्र जी. हृदय से आभारी हूँ. सादर.
आपकी बात से सहमत हूँ आ. अजय जी. अभी इसे संशोधित करता हूँ. लघुकथा में आपकी उपस्थिति और मूल्यवान टिप्पणी का हृदय से आभार. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
सादर आदाब आ. मोहम्मद आरिफ़ जी. आपकी नि:शुल्क सार्वजनिक शौचालयों की बात सही है किन्तु एक मजदूर के साथ वहाँ भी समस्या आती है. मैं लघुकथा में इसे एड्रेस करना भूल गया था. अच्छा हुआ आपने याद दिला दिया. आपकी इस समीक्षात्मक टिप्पणी का हृदय से आभार. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
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