२१२२/ २१२२/२१२२
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ये अजब क़िस्सा रहा है ज़िन्दगी में
याद आता है मुझे वो बेख़ुदी में.
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काश उन के लब मेरे होंठों को चूमें
मूँद कर आँखें.. पडा हूँ चाँदनी में.
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जब रिहाई की कोई सूरत नहीं है
लुत्फ़ लेना सीख ही लूँ बेबसी में.
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एक जुगनू जो लड़ा था तीरगी से
याद कर लेना उसे भी रौशनी में.
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याद कर के अपने माज़ी के पलों को
बहते हैं आँखों से आँसू हर ख़ुशी में.
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आपका अहसान मुझ पर यह बहुत है
आप ने है दर्द घोला शाइरी में.
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सोचने के वक़्त तुम को सोचता हूँ
और बाक़ी कट रही है नौकरी में.
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लुत्फ़ मिलता है बहुत ग़मगीन रहकर
जैसे कुछ बाक़ी नहीं हो ज़िन्दगी में.
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निलेश "नूर"
मौलिक अप्रकाशित
Comment
सोचने के वक़्त तुम को सोचता हूँ
और बाक़ी कट रही है नौकरी में.
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लुत्फ़ मिलता है बहुत ग़मगीन रहकर
जैसे कुछ बाक़ी नहीं हो ज़िन्दगी में , ऐसे सभी शेर अच्छे है , ये दोनों अभूत अछे लगे
मुबारक बाद कुबूल कीजिये निलेश भाई
जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
आदरणीय निलेश जी, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
' काश दो लब मेरे होंठों को चूमें' इस मिसरे में 'वो' छूट गया लगता है. .
यूं तो सारे शेर खूबसूरत हैं लेकिन एक शेर अलग से चमक रहा है :
सोचने के वक़्त तुम को सोचता हूँ
और बाक़ी कट रही है नौकरी में
सादर .
लुत्फ़ मिलता है बहुत ग़मगीन रहकर
जैसे कुछ बाक़ी नहीं हो ज़िन्दगी में. वाह! वाह!! बहुत ही सच्चा शे'र लगा ।
हर शे'र माक़ूल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीय नीलेश जी । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
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