जगण+रगण+जगण+रगण+जगण+गुरु
करे विचार आज क्यों समाज खण्ड खण्ड है
प्रदेश वेश धर्म जाति वर्ण क्यों प्रचण्ड है
दिखे न एकता कहीं सभी यहाँ कटे हुए
अबोध बाल वृद्ध या जवान हैं बटे हुए
अपूर्ण है स्वतन्त्रता सभी अपूर्ण ख़्वाब हैं
जिन्हें न लाज शर्म है वहीं बने नवाब हैं
अधर्म द्वेष की अपार त्योरियाँ चढ़ी यहाँ
कुकर्म और पाप बीच यारियां बढ़ी यहाँ
गरीब जोर जुल्म की वितान रात ठेलता
विषाद में पड़ा हुआ अनन्त दुःख झेलता
शरीर रुग्ण नग्न और वस्त्र हैं फ़टे हुए
गरीब का निशान पेट पीठ हैं सटे हुए
न भाग्य में मकान खेत गन्दगी सना रहा
यहाँ सदा गरीब ही गरीब क्यो बना रहा
अजीब बात देश की, किसान भूमिहीन है
घुसा न खेत में कभी, वहीं रखा जमीन है।
सफेदपोश के यहाँ दिखे कभी न रात हो
अमीर जन्मजात वो गरीब की न बात हो
लगा सभी छिपे यहाँ नकाब भेड़ चाल में
कहे सही किसे भला, सभी कुपथ्य हाल में
किसान या जवान हो, सुनो धरा पुकारती
विषाद में घिरी पड़ी, तुम्हे सदा निहारती
विकास की हवा बहे, स्वदेश को निहार लो
जगो उठो चलो बढो, भविष्य को सँवार लो
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
वाह आदरणीय बेहतरीन शब्द संयोजन..बेहतरीन भाव..सादर
आद0 सतविंद्र भाई जी सादर अभिवादन। प्रशंशा के लिए आभार। वहीं रखा जमीन है/इसका आशय मैंने यह लिया था कि जो जमीन वाले लोग है, वे खेत मे भले प्रवेश न किये हो, पर जमीनें उन्हीं के पास हैँ।
आद0 अजय कुमार जी सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थित होकर हौसलाफजाई के लिए शुक्रिया।
बहुत सुन्दर रचना...
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