-कब फिरेंगे अपने दिन?
-फिर ही तो रहे हैं।सुबह से शाम,फिर बातें तमाम।
-अरे भइये!अच्छे दिन आनेवाले थे।सुना था कभी।
-सब दिन अच्छे होते हैं।सब ईश्वर प्रदत्त हैं।
-सो तो ठीक है,अकलू।पर यहाँ तो 'नून-तेल-तरकारी,पड़ रही है भारी।'
-ठीके बोलते हो ,बकलू।ई नयको बजटवा में तरकारी महंगी हुई है।और वनस्पति तेल भी।
-ऊपर से होरी आई है।रंग फीका हो गया भाई।
-सो तो है।
-अरे का खुसर-पुसर चल रहल बा रे तू दुनो में?' टकलू ने टिटकारी भरी।
-लो आ गया अपन टकलू।'जोरू न जांता,नींद आवे अच्छा।'
-रे जोरू के गुलामो! भऊजीअन के साड़ी धोवा लो तू सब।कपड़ो महंगाइल बा।
-आयँ',अकलू-बकलू चकराई-सी आवाज में एक साथ बोल पड़े।
-अरे आयँ का?सच में।पता कर लो सब।रँगले साड़ी पर रंग चढ़ी,नया ना भेंटी अबकी।तू सब धुनइब एह होली में।
-इ त बिना जोरू वाला सबके जमाना आ गइल',अकलू बोला।
-सच में रे अकलू',बकलू बड़बड़ाया।ए होगा,वो होगा ....कहा था,पर हुआ क्या?'
-अरे बुरबक सब! राल मत टपकाओ सब अबहियें से।खिचड़ी अभी पक रही है।सूँघो तो,हवा में सुगंध है,कि नहीं?टकलू दोनों को टरकाने के अंदाज में बोला।
-हवा में कब से बात उड़ रही है।तुझे सुगंध भी मिलने लगी?दोनों ने टकलू की चुटकी ली।
-धीरज रखो',टकलू ने टिटकारा।
-तो यह खिचड़ी कब तक पकेगी?
-सरकारी खिचड़ी जल्दी नहीं पकती,पर पकती जरूर है। 'बीरबल की खिचड़ी' जानते हो न तुमलोग?
-हाँ।
-तो फिर?
-ढ़ाढ़स रखो।पक जायेगी।भले दिखे,या न दिखे।
-मतलब?
-यानी बीरबल वाली कब पकी थी?
-पता नहीं।
-अरे यही पता करने तो बादशाह अकबर को सिंहासन छोड़कर बीरबल के पास आना पड़ा था।
-वो तो है।पर हम समझे नहीं। खिचड़ी पक जायेगी,पकी नहीं,बादशाह को सिंहासन छोड़कर जाना पड़ा था।यह सब क्या है?अकलू-बकलू मुँह बाये हुए टकलू से पूछ रहे थे।
-यानी कि ,'बीरबल की औलादो', खिचड़ी तुम ही पकाते आये हो,तुम ही पकाओगे,तुम ही खाओगे।खा भी रहे हो। जय रामजी की!' टकलू चल पड़ा।
अकलू-बकलू अब भी मुँह बाये खड़े हैं।
..
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आद0 मनन जी सादर अभिवादन। अच्छा व्यंग कसा आपने लघुकथा में। इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये
आपका हार्दिक आभार आदरणीय शहजाद जी।
लेखनी कब तक चुप रहेगी। ग़ुबार शाब्दिक कर ही दिया न ! बेहतरीन कटाक्षपूर्ण विचारोत्तेजक सृजन। हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी।
आभार आपका मित्र।
आदरणीय मनन कुमार जी आदाब,
बहुत ही सामयिक लघुखथा । दर्द भी है , आक्रोश भी है और नये बजट के प्रति नीराशा का संचार भी । आज पूरा देश पूछ रहा है कि अच्छे दिन कब आएँगे ? आख़िर क्यों अच्छे दिन के स्वप्न दिखाए । अच्छे दिन पता नहीं किस चिड़िया का नाम है ।नई सत्ता से काफी उम्मीदें थी मगर उम्मीद पर खरी उतरती नज़र नहीं आ रही है । हार्दिक बधाई इस सशक्त लघुकथा के लिए ।
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