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खूब नजरें जो गढ़ाये हैं पराये माल पर
है भरोसा खूब उनको दोस्तो घड़ियाल पर।१।
भूख बेगारी औ' नफरत है पसारे पाँव बस
अब भगत आजाद रोते हैं वतन के हाल पर ।२।
आज सम्मोहन कला हर नेता को आने लगी
है फिदा जनता यहाँ की हर सियासी चाल पर।३।
खुद पहन खादी चमकते पूछता हूँ आप से
दाग कितने नित लगाओगे वतन के भाल पर।४।
ऐसा होता तो सुधर जाते सभी हाकिम यहाँ
वक्त जड़ता पर कहाँ है अब तमाचा गाल पर।५।
गाद कचड़ा और बदबू राज करते हैं वहाँ
पंछियों की भीड़ रहती थी कभी जिस ताल पर।६।
गौर करना खूब गहरे कालिखों से हैं पुती
देश में नित उँगलियाँ जो उठ रही पड़ताल पर।७।
जिन समाजों में बुरा था घरजमाई बैठना
आज कब्जा है जमाई का वहीं ससुराल पर।८।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई राम अवध जी, गजल पर उपस्थिति से उत्साहवर्धन के लिए आभार । बेहतरीन सुझाव के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदर्णीय लक्ष्मण धामी जी बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आपने कहा है बधाई।
वक्त जड़ता पर कहाँ है अब तमाचा गाल पर
यहाँ 'पर' शब्द दो बार आने मिसरा खटक रह है। इसको ऐसा भी कहा जा सकता है
वक्त जड़ता ही नहीं अब तो तमाचा गाल पर। सादर
आ. कल्पना बहन, प्रशंसा के लिए आभार ।
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया से मन आश्वस्त हुआ । कमियों के बारे बताते रहिये । इस स्नेह के लिए आभार ।
बढ़िया ग़ज़ल कही है आदरणीय , जिसके लिए बधाई स्वीकारें |
जनाब लक्ष्मण धामी साहिब ,सुरेन्द्र ग़ज़ल हुई है ।मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आ. भाई आमोद जी, गजल का अनुमोदन और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ मुसाफिर साहब ...बहुत ही खूब
सादर बधाई ....नमन
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