शहरी छोरा देहात घूमने आया है,मौसी के यहाँ।गाँव का नाम पंडितपुर है,देहात यहाँ दिखता है। उजड्ड लोग,अनपढ़ औरतें,गिल्ली-डंडा, कबड्डी और तिलंगी में अझुराये लड़के-बच्चे।बकरी चराती, मवेशियों को सानी देती लड़कियाँ, बस।गाँव के स्कूल की पढ़ाई का आलम है कि तीन-तीन बार मैट्रिक में फेल हुए तीन मास्टर दिहाड़ी जितनी रकम पर उसे संभाले हुए हैं।रही बात विद्यार्थियों की ,तो खिचड़ी के नाम पर कुछ घर से समय निकालकर आ जाते हैं।फिर खिचड़ी खतम, स्कूल खतम।मुखियाजी से मिलकर रजिस्टर -लिखाई हो जाती है।वही झुनिया जरा पढ़-लिख लेती है।नारी-शिक्षा कहें, या नारी-उद्धार,सब शब्द उसी में खप जायेंगे।'बीच चंवर में ढ़ेला' जैसी है वह।चेहरे का पानी,रंग-ढ़ंग वगैरह के चलते खोजी निगाहों में आ ही जाती है।भला चील से मांस की मोटरी(गठरी)छिपी रह सकती है भला?
तो आज वेलेंटाइन के दिन बोधू यानी शहरी बाबू का भी जी ललचा रहा है।वह भी इस दिन का आनंद उठाना चाहता है। बोधू इसलिए है कि वह ज्ञान ज्यादा बाँटता फिरता है।उसकी इसी आदत के चलते लोग उसे बोधू (ज्ञान वाला)कहने लगे।असली नाम शायद उसे भी याद न हो।
शाम को बकड़ियाँ लेकर झुनिया बगीचे की तरफ से आ रही थी।झटकते हुए बोधू उसके पास से गुजरता हुआ जल्दी में ही सही,पर सही ढंग से 'हैपी वेलेंटाइन डे' कह गया।झुनिया ने उसकी तरफ देखा।पंछी नया था,नौसिखुआ भी।वह मुस्कुरा कर रह गयी।
शाम को वह दरवाजे पर अकेली थी।मइया-बापू हाट गये थे।किसी के आने की धमक से वह पीछे मुड़ी, तो देखा शहरी बाबू खड़ा था।हाथ में कुछ छिपाये हुए था।
-क्या है',झुनकी झिझकती हुई बोली।
-कुछ नहीं,बस यूँ ही।
-ऊं?
-तेरे लिए गिफ्ट लाया था,वेलेंटाइन डे का।
-मेरे लिये क्यों?
-सुना है,यहाँ तू ही वेलेंटाइन समझती है।सब मूरख हैं।
-किसने कहा?
-जींस वाला सेठ।
-अच्छा।
-देख, चौदह तारीख है न? चौदह बार फता जींस लाया हूँ,एकदम यूज्ड लुक।समझी, कि नहीं?
-भोले हो!अनाड़ीभी।
-क्यों,क्या हुआ?
-अरे उ कलुआ ने तोहरा के पढ़ा दिया, शहरी बाबू?
-पढ़ा दिया, मतलब?
-पंद्रह बार फ़टी है यह जींस।अरे पंद्रह साल से मैं उसे कलुआ से आधे दाम पर बेच रही हूँ और वह पूरे दाम पर वेलेंटाइन के शौकीनों से इसे बेचता है।
-एँ?
-नहीं शहरी बाबू,नहीं।मैं तुझसे यह गिफ्ट नहीं ले सकती।तू बहुत भोला है रे!
बोधू की आँखें खुली रह गईं।' हाँ बापू, पहले का परिचित है यह छोरा',कहती हुई झुनकी अंदर चली गयी।
"मौलिक व अप्र का शि त"
Comment
आपकी बात अपनी जगह सही है। सब कुछ लिखकर हम पाठक को दें या एक ड्राफट ऐसा बनायें जिससे कथा खुद अपनी बात कहे। सर जहाँ तक लघुकथा की बात है अनआवश्यक विस्तार कथा को बोझिल ही करता है। वैसे हर रचनाकार की अपनी मौलिक सोच होती है। पर इस कथा में कसावट करेंगे तो और अधिक उभर जायेगी। सादर।
बहुत बहुत आभार आदरणीय उस्मानीजी।
ग्रामीण परिवेश और ग्रामीण बोली में बढ़िया चित्रण के साथ ग्रामीण और शहरी पात्रों की सोच और अनुभव को समेटते हुए वेलेंटाइन डे संदर्भित बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। लेकिन लघुकथा संदर्भ में इससे बेहतर ड्राफ्ट तैयार करने के लिए इस रचना पर और अधिक समय दिया जा सकता है।
आदरणीया कल्पना जी,पृष्ठभूमि,परिवेश वगैरह कथा के आवश्यक तत्वों में शुमार होते हैं।हम सब जानते हैं कि देशकाल,वातावरण,विषयवस्तु,चरित्र चित्रण,कथोपकथन .....इत्यादि कथा के तत्व हैं।इसलिए परिवेश के वर्णन को कथा का हिस्सा नहीं मानना गैर लाजिमी नहीं होगा क्या? वैसे रचना के प्रति आपकी अनुरक्ति एवं प्रतिबद्धता का दिल से कायल हूँ मैं,सादर।
सादर आभार आदरणीया।
आदरणीय जहाँ तक मैं समझ पायी हूँ वहां लघुकथा में लेखक का प्रवेश वो होता है जो एक लेखक अपनी बातों को लिखता है| आपने यहाँ जो बातें कही है यह एक जगह का वर्णन है जैसे स्कूल की पढाई का वर्णन ---- यहाँ ऐसा नहीं लग रहा है कि यह कथा का हिस्सा है बल्कि यहाँ एक लेखक उसका वर्णन कर रहा है|
लघुकथा में इस तरह के वर्णन का लेखक का प्रवेश निषेद है आदरणीय|
सादर|
आदरणीया कल्पना जी! रचना को इतना नजदीक से देखने का शुक्रिया। हाँ, आपका लेखकीय प्रवेश वाला कथ्य मैं समझ नहीं पाया।
आदरणीय मनन जी
उजड्ड लोग,अनपढ़ औरतें,गिल्ली-डंडा, कबड्डी और तिलंगी में अझुराये लड़के-बच्चे।बकरी चराती, मवेशियों को सानी देती लड़कियाँ, बस।गाँव के स्कूल की पढ़ाई का आलम है कि तीन-तीन बार मैट्रिक में फेल हुए तीन मास्टर दिहाड़ी जितनी रकम पर उसे संभाले हुए हैं।रही बात विद्यार्थियों की ,तो खिचड़ी के नाम पर कुछ घर से समय निकालकर आ जाते हैं।फिर खिचड़ी खतम, स्कूल खतम।मुखियाजी से मिलकर रजिस्टर -लिखाई हो जाती है।वही झुनिया जरा पढ़-लिख लेती है।नारी-शिक्षा कहें, या नारी-उद्धार,सब शब्द उसी में खप जायेंगे।'बीच चंवर में ढ़ेला' जैसी है वह।चेहरे का पानी,रंग-ढ़ंग वगैरह के चलते खोजी निगाहों में आ ही जाती है।भला चील से मांस की मोटरी(गठरी)छिपी रह सकती है भला?
तो आज वेलेंटाइन के दिन बोधू यानी शहरी बाबू का भी जी ललचा रहा है।वह भी इस दिन का आनंद उठाना चाहता है। बोधू इसलिए है कि वह ज्ञान ज्यादा बाँटता फिरता है।उसकी इसी आदत के चलते लोग उसे बोधू (ज्ञान वाला)कहने लगे।असली नाम शायद उसे भी याद न हो।
क्या इसमें लेखकीय प्रवेश नहीं हुआ है? सादर|
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