2122 2122 2122 2122
इन बहारों में भी गुल ये हो गये हैं ज़र्द साहिब
चढ़ गई वहशत कि इनपर क्यूँ अभी से गर्द साहिब
जब जहाँ चाहा किसी ने सूँघ कर फिर फेंक डाला
पूछने वाला न कोई नातवाँ का दर्द साहिब
जो रफू कर दें किसी औरत के आँचल को नज़र से
अब कहाँ हैं ऐसी नजरें अब कहाँ वो मर्द साहिब
हो गये पत्थर के जैसे फ़र्क क्या पड़ता इन्हें कुछ
हो झुलसता दिन या कोई शब ठिठुरती सर्द साहिब
क्या बचा है मर्म इसमें क्या करोगे इसको पढ़कर
हर्फ़ भी धुँधले हैं जिसके ये वही है फ़र्द साहिब
रहने दो झूटी तसल्ली रहने दो झूटा दिखावा
कितने देखे जिंदगी ने आपसे हमदर्द साहिब
----मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्याम नारायण जी आपका हार्दिक आभार
आद० लक्ष्मण धामी भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आद० मोहम्मद आरिफ़ साहब , आपको ग़ज़ल पसंद आई बहुत बहुत शुक्रिया आपका मेरा लिखना सार्थक हो गया.
मोहतरम जनाब तस्दीक जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई बहुत बहुत शुक्रिया आपका मेरा लिखना सार्थक हो गया
आ. राजेश दी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब,
मुश्क़िल क़वाफ़ी में बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल । मुझे पूरी ग़ज़ल बहुत पसंद है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
मुहतर्मा राजेश कुमारी साहिबा , मुश्किल काफियों से सजी उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
आद० तेजवीर सिंह जी आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका बहुत बहुत शुक्रिया |
आद० राम अवध जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया |
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