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मुझे ढ़ाल दे अपने ही ढंग से अब
सराबोर कर खुद के ही रंग से अब
ज़रूरी है ख़श्बू फ़िज़ाओं में बिखरे
बदन की तुम्हारे मेरे अंग से अब
न मुझसे चला जा रहा होश में है
तू मदहोश कर रूप की भंग से अब
है महफ़िल में भी मन हमारा अकेला
उमंगें इसे दे तेरे संग से अब
न जाने है कैसी जो मिटती नहीं है
मनस सींच तू प्रीत की गंग से अब
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्याम नारायण सर सादर आभार
आदरणीय लक्ष्मण सर सादर आभार
हार्दिक बधाई..
आदरणीय आरिफ सर, अवश्य
आदरणीय बाऊजी समर कबीर सर, आपका सुझाव उचित है, अभी सुधारता हूँ
आदरणीय पंकज मिश्रा जी आदाब,
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का तत्काल प्रभाव से संज्ञान लें ।
रंग पर्व होली की शुभकामनाएँ ।
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,होली पर अच्छी ग़ज़ल का तुहफ़ा दिया आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
मतले के ऊला मिसरे में दो बार 'अब' शब्द खटक रहा है,और दोनों मिसरों में 'तेरे' शब्द भी खटक रहा है,मुनासिब समझें ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
'मुझे ढाल दे तू इसी ढंग से अब'
तीसरे शैर के सानी मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है, और जहाँ तक मेरी जानकारी है सही शब्द "भांग" है,देखियेगा ।
'अकेला बहुत है ये महफ़िल में भी मन'
इस मिसरे को यूँ कर लें तो साफ़ हो जायेगा:-
'है महफ़िल में भी मन हमारा अकेला'
आवश्यक सूचना:-
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