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गुजर गया वो गली से सदा नहीं देता ।
हमें तो प्यार का सौदा नफा नहीं देता ।।
मैं भूल जाऊं तुझे अलविदा भी कह दूं पर ।
मेरा जमीर मुझे मश्विरा नहीं देता ।।
गवाही देतीं ।हैं अक्सर ये हिचकियाँ मेरी ।
तू ।मेरी याद को बेशक मिटा नहीं देता ।।
यकीन कर लें भला कैसे उसकी चाहत पर ।
वो शख्स घर का हमें जब पता नहीं देता ।।
नई नई है जवानी नया नया है बदन ।
मगर वो चाँद से पर्दा हटा नहीं देता ।।
सँभल के चलना जरा शह्र यह अलग सा है।
यहाँ कोई किसी को मश्विरा नहीं देता ।।
अजीब बात है गुलशन में फूल हैं लाखों।
जो दिल को भाया वही गुल खुदा नही देता ।।
बड़े ही नाज़ से आये थे तेरी महफ़िल में ।
मगर तू हमको भी कोई सिला नहीं देता ।।
हो आसमान में सूराख भी बता कैसे ।
तेरा जवाब मुझे हौसला नहीं देता ।।
हमें खबर है अदालत खरीद ली साहिब ।
कोई भी आपको देखो सजा नहीं देता ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अ प्रकाशित
Comment
आ0 कबीर सर सादर प्रणाम आपकी इस्लाह को नमन करता हूँ । अभी एडिट करता ।
आख़री शैर का सानी मिसरा यूँ करलें :-
'कोई भी आपको देखो सज़ा नहीं देता'
"ख़ता" दी नहीं जाती,की जाती है ।
इतनी मिहनत के बाद भी ग़ज़ल आपने ऐडिट नहीं की तो अफ़सोस होगा ।
मतले के ऊला मिसरे में 'हवा' क़ाफ़िया की जगह "सदा" कर लें ।
दूसरे शैर के सानी मिसरे में शिल्प कमज़ोर है, यूँ कर सकते हैं :-
'मेरा ज़मीर मुझे मश्विरा नहीं देता'
तीसरे शैर के ऊला मिसरे में शिल्प कमज़ोर है, यूँ करलें :-
'गवाही देती हैं अक्सर ये हिचकियाँ मेरी'
4था शैर यूँ कर लें :-
'यक़ीन कर लें भला कैसे उसकी चाहत पर
वो शख़्स घर का हमें जब पता नहीं देता'
छटे शैर में 'मसबरा' को "मश्विरा" कर लें ।
आठवें शैर का सानी मिसरा यूँ कर लें :-
'मगर तू हमको वफ़ा का सिला नहीं देता'
9वें शैर के ऊला में सही शब्द है "सूराख़",ऊला मिसरा यूँ कर लें :-
'हो आसमान में सूराख़ भी बता कैसे'
और सानी में 'जबाब' को "जवाब' कर लें ।
आख़री शैर का क़ाफ़िया सही नहीं ।
आपकी ग़ज़ल में बहुत काम है,कम से कम आधा घण्टा लगेगा, दोपहर में आता हूँ।
आ0 हर्ष महाजन साहब सप्रेम आभार
"यकीन कर लें भला कैसे इस मुहब्बत पर ।
वो शख्स घर का हमें अब पता नहीं देता ।।"
वाह आदरणीय जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी बहुत खूबसूरत हसासों से परिपूर्ण ग़ज़ल हुई है ।बहुत बहुत बधाई ।
सादर!
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