२२१२/२२१२
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माँ भारती की शान में,
वो रोज़ नव परिधान में.
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क्यूँ राष्ट्रभक्ति खो गयी
समवेत गर्दभ गान में.
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सब हो गए कितने पतित
सोचो कथित उत्थान में.
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हर बैंक कर देंगे सफा
वो स्वच्छता अभियान में.
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इन्सानियत बाक़ी कहाँ
अब है बची इन्सान में.
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वो माफ़िनामे लिख गये
अपना यकीं बलिदान में.
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कैसे मसीहा देख लूँ
उस इक निरे नादान में.
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करते दहन है खूँ फ़िशां
कत्था लगा कर पान में.
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क्यूँ छल कपट को घर दिया
इस ज़ह’न-ए-आलिशान में.
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पैग़ाम केवल .. प्रेम है
गीता में औ कुर’आन में.
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कुछ भी नहीं है फ़र्क़ “नूर”
अल्लाह में भगवान में.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सुशिल जी
शुक्रिया आ. समर सर
शुक्रिया आ. अजय शर्मा जी
शुक्रिया आ. सोमेश जी
शुक्रिया आ. अजय जी
वाह !
बहुत सुन्दर रचना...
हर बैंक कर देंगे सफा
वो स्वच्छता अभियान में.
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इन्सानियत बाक़ी कहाँ
अब है बची इन्सान में.
वाह आदरणीय क्या अहसास पिरोये हैं आपने अपनी इस शानदार ग़ज़ल में। हार्दिक बधाई।
जनाब निलेश 'नूर"साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
bhut khub
हर बैंक कर देंगे सफा
वो स्वच्छता अभियान में.
बहुत खूब!
आदरणीय निलेश जी, इस सामयिक ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई,
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