मफ़ऊल मफ़ाईल मफ़ाईल फ़ऊलुम
सोई हुई ख़्वाहिश को जगाना ही नहीं था
ख़्वाबों में मेरे आपको आना ही नहीं था
बाग़ी है अगर तुझ से तो अब कैसी शिकायत
औलाद का हक़ तुझको दबाना ही नहीं था
वो होके पशेमान यही बोल रहे हैं
मासूम पे इल्ज़ाम लगाना ही नहीं था
सब,झूट यही कह के यहाँ बोल रहे थे
सच बोलने वालों का ज़माना ही नहीं था
बहरों की ये बस्ती है "समर" जान गये थे
फिर तुमको यहाँ शोर मचाना ही नहीं था
समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन ।लाजवाब गजल हुई है कोटि कोटि बधाई ।
आद0 आली जनाब समर कबीर साहब सादर प्रणाम। रचना पर देर से उपस्थित होने के लिए माफी चाहूँगा, पर जीवन की भागमभाग में थोड़ा व्यस्त हो गया था।
पहली बात मैं आपको हृदय से आभार व्यक्त करना चाहूंगा कि आपने अपनी ग़ज़ल के माध्यम से हम सीखने वालों को बढिया पाठ पढ़ाया कि किस तरह दोष रहित ग़ज़ल लिखी जाएं। काफ़ियाबन्दी में होने वाली त्रुटियों से बचने के लिए आपकी ग़ज़ल और इस ग़ज़ल पर हुई चर्चा से बहुत कुछ सीखने समझने को हैं। पुनश्च आभार।
अब आते हैं ग़ज़ल पर।
मतला कितना मासूमियत भरा, बरबस ही वाह निकलता है। बाकमाल। दूसरे शेर के महीन खयाल को आप जैसा शाइर ही बुन सकता है। वह वाह।
बहरों की यह बस्ती है, 'समर' जान गए थे,
फिर तुमको यहाँ शोर मचाना ही नहीं था।।
ग़ज़ज़्ब। बहुत बेहतरीन अंदाजे बया आपके कहन का। शेर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर
उचित है आदरणीय..सादर
क़ाफ़िया है 'आना'अब जगाना-में से आना निकाल दें तो शब्द बचेगा 'जग',इसी तरह हटाना में से आना निकाल दें तो शब्द बचेगा 'हट' अब 'जग' और 'हट' दोनों शब्द बा मा'ना यानी सार्थक हैं इसलिए इनमें से एक शब्द यानी मतले के एक मिसरे में क़ाफ़िया बदल दें तो,जैसे 'ज़माना'अब ज़माना में शब्द 'माना' चलेगा जो जगाना के साथ 'माना' की तुकान्तता बनाता है,अधिक विस्तार से जानने के लिए पटल पर जनाब वीनस केसरी साहिब का आलेख पढ़ें ।
आदरणीय तिवारी जी की टिप्पड़ी पढ़ी है मैंने।लग और हट काफ़िया नहीं हो सकते..लेकिन क्यों ये साफ साफ समझ नही आ रहा।
आप इस ग़ज़ल पर जनाब अजय तिवारी साहिब की टिप्पणी पढ़ लें ।
आपका मतला ठीक है ।
लेकिन आदरणीय ये दोष क्यों आ रहा है..मतले में लगाना और हटाना..मिसरों में परस्पर विरोधाभास है।इसलिए या कोई और वजह?
एक मतला लिखा अभी हाल ही में..
दर्द ही छलके न तो किस काम की तन्हाइयाँ
जान ही ले लेंगी ज़ालिम शाम की तन्हाइयाँ..यहाँ भी परस्पर विरोधाभास है..क्या ये सही है?
जनाब बृजेश साहिब आदाब,सुख़न नवाज़ी के लिए आपका शुक्रगुज़ार हूँ ।
प्रिय,ये सब ओबीओ मंच की पहचान है,कुछ लोग अपनी रचनाओं पर आलोचना और चर्चा पसन्द नहीं करते उन्हें याद दिलाना था कि ये ओबीओ का ख़ास मक़सद है । ओबीओ ज़िंदाबाद ।
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय..सभी टिप्पड़ी सार्थक हैं..कुछ सीखने को मिला..सादर
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