मापनी 221 2121 1221 212
आँगन, वो’ छत, वो’ चाँद, सितारे कहाँ गए.
वो दिल की’ हसरतों के’ शरारे कहाँ गए.
निश्छल सरल वो’ प्रेम के’ किस्से पले जहाँ,
पनघट, नदी वो’ झील किनारे कहाँ गए.
आये थे’ जिन्दगी में दिखाने को’ रास्ता,
नींदें चुरा के’ ख्वाब तुम्हारे, कहाँ गए.
चारों तरफ गुबार है’ नफरत की’ धूल का,
उड़ते थे’ प्रेम के वो’ गुबारे कहाँ गए.
जब आयी’ गम की’ रात अँधेरा पसर गया,
मनमीत थे कभी जो’ हमारे, कहाँ गए.
जब से मिला है’ तख़्त दिखाई न शक्ल दी,
वादों की’ पोटली वो’ पिटारे कहाँ गए.
चौपाल, नीम, आम, बुजुर्गों से’ मशविरा,
मिलते थे’ सब गले वो' नजारे कहाँ गए.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
जनाब बसंत कुमार साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमाएं। मेरे हिसाब से गुबारे क़ाफ़िया सही है । सही शब्द लुगात में गुबारा ही है ।
आदरणीय Samar kabeer जी, देखें ये ठीक रहेगा क्या या आपका कुछ और सुझाव हो तो मार्गदर्शन करें, सादर
चारों तरफ गुबार है’ नफरत की’ धूल का,
आँगन थे’ प्रेम के जो’ बुहारे कहाँ गए
आदरणीय Ajay Tiwari जी एवं आदरणीय Nilesh Shevgaonkar आपका दिल से शुक्रिया,
आदरणीय आपके मार्गदर्शन का दिल से शुक्रिया, तदनुसार परिमार्जित करता हूँ, इसी तरह स्नेह बनाये रखें. सादर नमन
आदरणीय बसंत जी, खूबसूरत अशआर हुए है. हार्दिक बधाई.
अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई आ. बसंत जी
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास बहुत उम्दा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
तीसरे शैर के ऊला मिसरे में 'को' की जगह 'जो', करना उचित होगा ।
चौथे शैर में 'ग़ुबारे' क़ाफ़िया ग़लत है,सही शब्द है "ग़ुब्बारे" देखियेगा ।
छटे शैर के ऊला मिसरे में 'दी' को "भी"करना उचित होगा ।
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