अजर-अमर कविता ....
मैं
कविता हूँ
सृष्टि की साथ ही
मेरा भी उद्भव हो गया
मैं अजर हूँ
अमर हूँ
क्योँकि मैं
कविता हूँ
मेरे अथाह सागर में
न जाने
कितनी आकांक्षाओं और भावों ने
पनाह ली है
कभी प्रीत तो कभी प्रतिकार
कभी शृंगार तो कभी अंगार
कभी मिलन तो कभी विरह
न जाने कितनी ही
पल-पल हृदय में उपजती
अनुभूतियों से
मेरी देह को सजाया गया
फिर में किसी किताब में
मुझे बिठाया गया
किताबें समय के साथ
एक कब्र की तरह
पुरानी हो जाती हैं
मगर
मैं
उस कब्र में कभी पुरानी नहीं होती
हमेशा ज़िंदा रहती हूँ
क्योँकि
मैं अजर-अमर
कविता हूँ
मैं
ऐसा आईना हूँ
जिसमें हर कोई
अपने भावानुसार
अपनी तस्वीर देखता है
कभी मैं
दिल की गलियों से
गुजरती हुई
आँखों से बह निकलती हूँ
कभी किसी के अधरों पे
मुस्कान बन बिखर जाती हूँ
कभी किसी के
स्वप्न बन जाती हूँ
सब को प्रसन्न करती हुई
अपने किताब से घर में
लौट जाती हूँ
हर किसी के भावों का मसीहा बन
मैं
हर दिल में
धड़कन बन कर जीती हूँ
क्योँकि
मैं शब्दों की पालकी में लेटी हुई
अजर अमर
कविता हूँ
माँ शारदे के धाम से
अनादि काल से
भाव तटों पर
कल -कल बहती
मैं
अजर-अमर
कविता हूँ , कविता हूँ , कविता हूँ ...
सुशील सरना
Comment
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब सृजन के भावों को अपनी दिलकश शैली में उत्साहित करने का दिल से आभार । आपका तहे दिल से शुक्रिया। नेट प्रॉब्लम से आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार। । नेट प्रॉब्लम से आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत उम्दा कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई सुशील जी, सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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