२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२
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दूर से इक शख्स जलती बस्तियाँ गिनता रहा
रह गई थीं कुछ जो बाकी तीलियाँ गिनता रहा.
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यादों के बिल से निकलती चींटियाँ गिनता रहा
था कोई दीवाना टूटी चूड़ियाँ गिनता रहा.
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मुझ से मिलता-जुलता लड़का आईने से झाँक-कर
मेरे चेहरे पर उभरती झुर्रियाँ गिनता रहा.
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होश मेरे गुम थे मैंने जब किया इज़हार-ए-इश्क़
और वो नादान कच्ची इमलियाँ गिनता रहा.
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एक दिन पूछा किसी ने कौन है तेरा यहाँ
दिल हुआ रुसवा बहुत बस उँगलियाँ गिनता रहा.
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नाम रब का ले रहे थे डूबती किश्ती में सब
एक मैं था जो तुम्हारी चिट्ठियाँ गिनता रहा.
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याद कोई कर रहा था कितनी शिद्दत से मुझे,
मैं भी गुमसुम बैठ कर बस हिचकियाँ गिनता रहा.
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ट्रेन की खिड़की पे यूँ ही सर टिकाए था कोई
या कि उल्टे पाँव जाती बत्तियाँ गिनता रहा.
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डूबता कैसे मैं उस की किश्तियाँ तैनात थीं
वो जो दरिया में बहाई नेकियाँ गिनता रहा.
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“नूर”-ए-नादाँ ये सफ़र तेरे ही अन्दर था मगर
तू ज़मीनो-आसमाँ की दूरियाँ गिनता रहा.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
वाह वाह आ. समर सर.. क्या कहने
ग़ज़ल पूरी कीजिये ....
वैसे मैं भी एक शेर में बाग़ में इंतज़ार में तितलियाँ गिनने वाला था ...लेकिन फिर गिनती भूल गया
सादर
जनाब निलेश जी,आपकी ग़ज़ल इतना मुतास्सिर किया कि दो शैर मेरे भी हो गए,मुलाहिज़ा कीजिये:-
'और क्या करता बताओ इन्तिज़ार-ए-यार में
तैरती तालाब में मुर्ग़ाबियाँ गिनता रहा
बज़्म में तेरी नहीं था बोलने का इख़्तियार
बे अदब लोगों की मैं गुस्ताख़ियां गिनता रहा'
आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब,
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आपकी टिप्पणी से अभिभूत हूँ ..स्नेह बनाए रखिये ,,
सादर
आ. अजय जी.
छात्र तो यहाँ सभी हैं और सभी सुझावों का स्वागत भी है लेकिन आप स्वयं कितने आश्वस्त हैं अपने सुझाव को लेकर??
ख़याल आना और उस ख़याल को प्रोसेस कर के पेश करना भिन्न बातें हैं..
सईद राही साहब का एक शेर आप की नज़र ..
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हमें सब्र करने को कह तो रहे हो
मगर देख लो ख़ुद ही घबरा रहे हो ... ताक़बुले-रदीफ़ नज़रंदाज़ कर के मर्म तक पहुँचने का प्रयास कीजिये..
सादर
एक के बाद एक धमाकेदार ग़ज़लों का मुसलसल सिलसिला । माशा अल्लाह क्या ख़ूब ग़ज़लें पढ़ने-सुनने और गुनगुनाने में आ रही है । अल्लाह ओबीओ को लंबी उम्र अता करें । मुझ जैसे ग़ज़ल सीखने के पिपासु के इल्म-ए-ग़ज़ल में मुसलसल इजाफा हो रहा है । ख़ुदा करे आप गुणीजन इसी तरह ग़ज़ल के विधानों पर चर्चा करते रहें और मुझ नाचीज़ को सीखने को मिलता रहे । इस शानदार ग़ज़ल पर दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरणीय नीलेश जी ।
आदरणीय निलेश जी,
मै खुद को ग़ज़ल का एक छात्र ही समझाता हूँ. और मेरी टिप्पणियों को उसी नज़रिए से लेने की ज़रुरत है. मैंने स्पष्ट लिखा है कि ''ये मेरा ख़याल है'' इसे किसी फैसले की तरह न ले. ये हमेशा संभव है कि मेरा ख़याल गलत हो.
सादर
आ. अजय जी,
आप शायद अपनी ही टिप्पणी को दुबारा पढना चाहेंगे...
शेर के भाव ही शेर का मूड होते हैं... मूड यानी मिजाज़.. यहाँ मीर और ग़ालिब दो अलग शाइर हैं तो अलग मूड होंगे ही... लेकिन मैं "नूर" हूँ और उसी में प्रसन्न हूँ ...
रही बात बिम्ब की तो ..मैं ``कॉपी पेस्ट शाइर या रोबोट नहीं हूँ... जब जैसा ऊपर से उतरता है ..वैसा कह देता हूँ ..
ग़ज़ल भी सोच कर कही तो क्या कही ... दिल का मुआमला है हुजूर ज़हन का नहीं...
वैसे टिप्पणी को गंभीरता से न लेने की नसीहत इसी ग़ज़ल तक सीमित है या आगे भी इसका पालन करता रहूँ?
सादर
आदरणीय निलेश जी,
मुझे लग रहा है आप मिजाज़ और विषय को एक मान रहे हैं . मिजाज़ और विषय एक ही बात नहीं है. एक विषय पर लिखे ग़ालिब के शेर का मिजाज़ मीर के शेर के मिजाज़ से अक्सर अलग होता है. मिजाज़ को व्याख्यायित करना काफी मुश्किल काम है यह एक अनुभवजन्य चीज है.
'यादों का चीटियों के बिलसे निकलना' सामान्य परंपरा से बिल्कु्ल अलग बिम्ब है यह एक ऐसी ग़ज़ल में होता जिसमे और इसी तरह के बिम्ब होते तो ज्यादा उपयुक्त होता मेरा मंतव्य सिर्फ ये था.
वह एक त्वरित टिप्पणी थी उसे इससे ज्यादा गंभीरता से न लें.
सादर
आ. अजय जी,
वैसे तो मैं सहमत नहीं हूँ आप की बात से फिर भी यदि मैं किसी एक शेर को आउट ऑफ़ मूड कहूँ तो वो शायद मतला होगा क्यूँ कि बाकी अशआर कमोबेश इश्क़ अथवा मूल पात्र के गिर्द घूम रहे हैं ...
सादर
धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी
आभार
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